महर्षि पतञ्जलि विरचित योगदर्शन ग्रन्थ में अष्टांगयोग का चित्रण किया गया है। उनके अनुसार योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्रणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि। इनका पालन करते हुए अन्ततः मनुष्य समाधिस्थ होकर ईश्वर में लीन हो जाता है। यह प्रक्रिया एक दिन में पूर्ण नहीं होती। साधक को वर्षों लग जाते हैं फिर भी मोक्ष नहीं मिल पाता। कई जन्मों तक साधना करनी पड़ती है तब कहीं जाकर वह अपने अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर पाता है।
आज हम ध्यान के विषय में चर्चा करते हैं। ध्यान के विषय में योगशास्त्र ने कहा है-
तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।
अर्थात ध्येय वस्तु में चित्तवृत्ति की एकतानता को ध्यान कहते हैं। एकतानता का अर्थ होता है एकाग्रता।
मनुष्य का सारा जीवन योग की प्रथम दो सीढ़ियों यानी यम और नियम की अनुपालना करने में ही अटका रहता है। इन दोनों का मन से पालन करने पर मनुष्य का अन्त:करण शुद्ध हो जाता है। फिर भी, चाहकर वह उन दोनों का पालन करने में समर्थ नहीं हो पाता। दुनिया के आकर्षण इतने अधिक हैं कि उनमें खोकर वह अपने निर्धारित लक्ष्य से भटक जाता है। फिर ध्यान और समाधि तक पहुँचना तो बहुत ही कठिन कार्य होता है।
ध्यान अष्टांगयोग की सातवीं सीढ़ी है।
ध्यान लगाने का अर्थ होता है सांसारिक विषय-वासनाओं से मन को हटाकर अपने अन्तस के साथ सम्बन्ध बनाना। यह सबसे कठिन होता है, उसके लिए मन को साधना पड़ता है। जब साधना में बैठो तो यह मन मनुष्य को भटका देता रहता है। उसे स्थिर होकर नहीं बैठने देता। उसी समय उसे दुनियाभर की बातें याद आती हैं। घर-गृहस्थी, नौकरी-व्यवसाय, बच्चों, मित्रों आदि की समस्याएँ सताने लगती हैं। यदि यह मन ध्यान में अवस्थित हो जाए तो सारी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं।
ध्यान का अर्थ किसी लक्ष्य पर केन्द्रित होना भी किया जा सकता है। विद्याध्ययन, नौकरी पाना, व्यवसाय में सफलता पाना अथवा खेल आदि किसी भी क्षेत्र का चयन करके उसमें योग्यता पाने के लिए भी ध्यान केन्द्रित करना पड़ता है। वहाँ भी मन की सारी शक्ति को जुटाकर लक्ष्य भेदन करना होता है। हर क्षेत्र में ध्यान लगाने से ही सफलता कदम चूमती है। वहाँ भी आने वाली विघ्न-बाधाओं से मुक्ति हेतु साधना करनी पड़ती है। आम बोलचाल की भाषा में भी हम कहते हैं-
अपना ध्यान रखन। ध्यान से पढ़ो या देखो। ध्यान कहाँ है? आदि।
जब भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिए मन को एकाग्र करना पड़ता है तो फिर महान आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ध्यान लगाने की आवश्यकता तो अधिक ही होगी। ध्यान लगाने से मनुष्य का मन धीरे-धीरे शान्त होने लगता है। तत्पश्चात वह काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि आन्तरिक शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने लगता है। इससे उसका मन निश्छल हो जाता है।
ध्यान की अवस्था में मनुष्य को विभिन्न प्रकार की और विचित्र प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। उन अनुभूतियों में कभी वह डरता है, कभी हँसता है, कभी रोता है। इस ध्यान की प्रारम्भिक अवस्था में उसे नदी, समुद्र, गुफा, पर्वत, वन, उपवन, पक्षी, इन्द्रधनुषी रंग, शंख, नीला आकाश, बादलों की गड़गड़ाहट, साँप, साधु-सन्यासी, देवदर्शन, मन्दिर या कोई भी पूजास्थल, हिंसक पशु, कल्पवृक्ष, कामधेनु, फल वाले वृक्ष, सूर्य, चन्द्रमा आदि दिखाई देते हैं।
ध्यान की अवस्था में भयभीत हो जाने वाले साधक को पुनः साधना करनी पड़ती है। यह सब विघ्न साधक के समक्ष इसलिए आते हैं जिससे उसकी परीक्षा ली जा सके कि वह इस ध्यान साधना के लिए मन से कितना तैयार है। कहीं वह दूसरों की देखादेखी या होड़ में तो इसका अभ्यास नहीं कर रहा।
चन्द्र प्रभा सूद
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