आपने वादा तोड़ दिया
मेरी शादी के बाद मेरी पत्नी सुधा अपने मैके आगरा गईं। उसके मैके जाते ही अपनी तो जैसे खाट खड़ी हो गई। एक एक पल काटना मुश्किल हो गया । घर में और कोई था नहीं । मम्मी पापा गांव में रहते थे और मुझे नौकरी के कारण शहर में रहना पड़ता था । शनिवार को मैं गांव पहुंच गया । शनिवार और रविवार तो ठीक निकल गये लेकिन सोमवार को वही सन्नाटा । मैं और मेरी तनहाई अक्सर ये बातें करते थे कि सुधा रानी तुम हो तो यह घर घर लगता है नहीं तो "रामसे ब्रदर्स" की डरावनी फिल्म का कोई खंडहर नुमा महल ।
जैसे तैसे सात आठ दिन निकल गये । हमने आव देखा ना ताव और छुट्टी लेकर पहुंच गये आगरा । उन दिनों में सुधा का भाई यानी हमारे साले साहब उसे लेने के लिए आते थे और हम अपनी ससुराल जाकर उन्हें लेकर आते थे, ऐसा रिवाज था । कोई फोन नहीं था केवल चिट्ठी पत्री का जमाना था । सुधा को मेरी चिट्ठियां बहुत पसंद आती थीं । थोड़ा साहित्यिक पुट हुआ करता था मेरी चिट्ठियों में । कुछ शेरो शायरी और कुछ शरारत । उसने आज तक संभाल कर रखी हैं वो सारी चिट्ठियां ।
हमको अचानक ससुराल में देखकर हमारी सासू मां एकदम से चौंक पड़ीं । एक मुस्कान और उपालंभ के साथ हमारा स्वागत किया गया । उलाहना देते हुए वे बोलीं "आप तो पंद्रह दिन में आने वाले थे ना" ।
अब हम कैसे कहें कि हमारा तो एक एक दिन कटना भारी पड़ रहा है । आप पंद्रह दिन की बात करते हैं । लेकिन हम चुप रहे । वो हमारी खामोशी को शायद नहीं समझी और कह दिया कि "मैं तो नहीं भेजतीं सुधा को । आप सात दिन बाद आकर ले जाना" ।
सुधा मेरे सामने ही बैठी थी । अचानक मेरी नज़र सुधा से जा टकराई । आंखों ही आंखों में उसने कह दिया कि चलना है ।
बस फिर क्या था । बहाने बनाने में कोई पैसा खर्च थोड़ी ना होता है । और इस काम में तो हमें महारथ हासिल है । सासू मां से कह दिया ," खाना कौन बनाये वहां पर ? अब खाना वाना नहीं बनता हमसे। इसलिए दो तीन दिन में एक टाइम खा लेते हैं । वैसे सात आठ दिन की तो बात है , इतने दिनों में खाना नहीं खायेंगे तो भूखे तो मर नहीं जायेंगे ना । कोई बात नहीं , मैं सात आठ दिन बाद आ जाऊंगा "। सारी मासूमियत वहीं उडेल दी ।
तीर निशाने पर जाकर बैठ गया। कौन सी ऐसी सासू मां होगी जो यह चाहेगी कि दामाद भूखा सोये । खट से फरमान सुना दिया । " इस बार तो मैं भेज रही हूं मगर अगली बार एक महीने के लिए छोड़ना होगा । देख लो" । मरता क्या ना करता । हमने भी सोचा कि अभी तो अपना काम चलाओ , आगे की आगे सोचेंगे। और हमने हमारी सासू मां को वचन दे दिया ।
हम दोनों अपने घर आ गये । जो हाल मेरा था वही सुधा का भी था । ये बात समझ में आ गई। अगली बार हमारे साले साहब फिर से लेने के लिए आये और हमारी सासू मां का फरमान भी सुना दिया कि उन्होंने एक महीने रोकने को कहा है । हमने भी कह दिया कि हां , हमें हमारा वादा याद है । सुधा भी उसी हिसाब से कपड़े ले गई । तब तक हमारा पुत्र शेखर भी हो गया था । अब अकेले रहना असंभव सा लग रहा था लेकिन "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा" की तर्ज पर रहना था । वो भी पूरे एक महीने । बहुत मुश्किल टॉस्क था यह ।
अभी सात आठ दिन ही बीते थे कि सुधा की चिट्ठी आ गई । " आपके बिना एक एक दिन काटे नहीं कटता है । आकर ले जाओ ना "।
अंधे को क्या चाहिए दो आंखें । आंखें सामने थीं । बस जाकर लाना था । हमने तुरंत अपनी पैकिंग की और पहुंच गये आगरा ।
इस बार हमको देखकर हमारी सासू मां भड़क गई और 'भजन' सुनाने लगीं । हम भी चुपचाप सुनते रहे ।
"आपने तो एक महीने का वादा किया था । इतनी जल्दी तोड़ भी दिया । आप चाहे वादा तोड़ दो , मैं तो नहीं तोडूंगी । अभी तो किसी हाल में नहीं भेजूं सुधा को " । सुधा भी वहीं बैठी बैठी सुन रही थी और मेरी ओर देखकर मुस्कुरा भी रही थी । मैं मन ही मन उसको कोस रहा था कि मुझको फंसा कर क्या आनंद ले रही है । लेकिन ये हमारे संस्कारों की देन है कि पति-पत्नी जब संकट ग्रस्त हों तो एक दूसरे को बचाते हैं । पर यहां पर सुधा ने मुझे हलाल होने के लिए छोड़ दिया था और मुझे कटते देखकर आनंद भी ले रही थी । मैंने उसे आंखों से इशारा किया और बरामदे में बुलाया। कहा " मम्मी जी को तुम भी तो समझाओ ना। मुझ पर पिल रहीं हैं जबसे " । उसने झट से कह दिया कि मैं कैसे कहूं मम्मी से । आप की समस्या है । मैं कुछ नहीं जानती । कल ले चलना है मुझे यहां से। कैसे ले जाते हो ये आप जानो और आपका काम जाने " ।
" चढ़ जा बेटा सूली पर भली करेंगे राम " । हमने भी ठान लिया कि अब तो सूली पर चढ़ना ही है तो जो होगा सो देखा जायेगा। मैंने अपनी उंगली सासू मां को दिखाई जिस पर चोट आई हुई थी और पट्टी बंधी हुई थी । हमने कहा कि इस चोट के कारण खाना नहीं बनता है । यही कारण है और कोई कारण नहीं ।सासू मां को विश्वास नहीं हुआ कि कोई चोट आई हूं । उन्हें वह पट्टी फर्जी लग रही थी । हमने पट्टी खोल कर भी दिखाई । वो यह तो मान गई कि चोट है पर उतनी गंभीर नहीं है रात तक यह कार्यक्रम चलता रहा सासू मां का कि वो नहीं भेजेंगी । मुझे लगा कि मामला फिट नहीं हो रहा है तो एक बार मैंने दबी जुबान से कह दिया कि आप सुधा से भी एक बार पूछ तो लो कि वह रुकने के लिए तैयार है या नहीं ?
अब तो सासू मां का मुंह खुला का खुला रह गया । सुधा वहीं बैठी थी तुरंत अंदर भाग गई । सासू मां की आश्चर्य चकित आवाज आई " सुधा , तैने जुलम कर दीयो " । सुधा की हंसी रोके नहीं रुक रही थी । सासू मां अंदर सुधा के पास चलीं गईं और कहा " अच्छा । तूने चिट्ठी लिख कर बुलाया है कंवर साहब को । अब तेरा मन यहां पर नहीं लगता है ना । मुझे तो पता ही नहीं था " ।
फिर थोड़ी देर में दोनों ड्राइंग रूम में आ गईं ।
अब वो कहने लगीं " मुझे माफ़ करना कुंवर साहब। मैंने आपको पता नहीं क्या क्या कह दिया । शादी के बाद ऐसी स्थिति आ जाये कि बेटी का मन अपने पीहर में नहीं लगे , इससे अच्छी और कोई बात हो ही नहीं सकती है । बेटी ससुराल में कैसे रहतीं हैं यह सोचकर कभी कभी तो मन बहुत डरता था लेकिन अब मेरे मन में कोई चिंता नहीं है । बल्कि फख्र है कि मेरी बेटी और दामाद में बहुत प्यार है। ऐसा हर जगह नहीं होता है । इसके अलावा हमको और क्या चाहिए । आप दोनों की जोड़ी युगों-युगों तक बनी रहे । यही आशीर्वाद देती हूं " और उनकी आंखों से अश्रुधार बह निकली ।
हरिशंकर गोयल "हरि"