असहिष्णुता….
मनुष्य के जीवन में उसके व्यक्तित्व और सोच-विचार पर खान-पान व रहन-सहन का बहुत असर पड़ता है। कहा जाता है जैसा खान-पान, वैसा अचार-विचार। अर्थात सादा जीवन, सादा भोजन - उच्च विचार। जिस तरह से फसल को समय-समय से सींचा जाता है, खाद-पानी दिया जाता है तो उसका समुचित विकास होता है। जिसका उचित देखभाल नहीं होता है उसका विकास रुक जाता है। जैसे कुछ बीज ले लीजिए और उसे तीन तरह के स्थान पर डाल दीजिए। आप देखेंगे कि जो बीज पत्थरीले स्थान पर गिरा होता है वह सूख कर नष्ट हो जाता है। जो बीज कंकरीले या कम उपजाऊ जमीन पर गिरा था उसका अंकुरण तो होता है पर विकास प्रभावित होता है। जो बीज उपजाऊ जमीन पर पड़ा था और जिसे समुचित मात्रा में पानी और प्रकाश मिला वो पूरी तरह विकसित होता गया। ठीक उसी तरह से खान-पान की सामग्रियों का असर मनुष्य के सोच-विचार और आचरण पर पड़ता है। आज मनुष्य स्वार्थी बनकर चंद मुनाफे के लिए हर चीज में मिलावट करने लगा है। उस मिलावट का असर लोंगों के सेहत के साथ -साथ सोच-विचार पर स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है। आज दूध में मिलावट, तेल में मिलावट और खान-पान के अन्य सामग्री में मिलावट बड़े पैमाने पर हो रहा है। फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए और मुनाफा कमाने के लिए अंधाधुंध यूरिया, डाई, पोटाश और कीटनाशकों का प्रयोग किया जा रहा है। अनाज और फलफूल सब जहरीले बन गए हैं। इनका दूरगामी परिणाम बहुत भयंकर होता है। ऐसे ही खान-पान के कारण आज मनुष्य में तमाम बीमारियाँ पनपने लगी हैं। जिसमें रक्तचाप, मधुमेह, तपेदिक और तनावग्रस्त की बीमारी होना प्रमुख है।
ऐसे मिलावटी खान-पान के कारण लोंगों में धैर्य, संयम, शील, संकोच और सहनशक्ति घटने लगा है। जिसका परिणाम हमें आसपास दिखाई पड़ता है। एक के बदले चार बात सुनाने के लिए तैयार रहना पड़ता हैं। जिसके फलस्वरूप मनमुटाव, झगड़ा और लड़ाई होती रहती है। इसके लिए आपको मुद्दे की आवश्यकता नहीं होती है। अहंकार व स्वार्थ नित नए मुद्दे लेकर तैयार खड़े रहते हैं। लोग अनायास ही भिड़ जाते हैं। अतः व्यक्तित्व व व्यवहार में भी मिलावट का असर दिखता है। कोई भी बात का धनी नहीं है सब के सब अवसरवादी बने हुए हैं। इसका जीता जागता उदाहरण मुंबई की लोकल ट्रेन में मिल जाता है। ट्रेन में भूसे की तरह भरे रहते हैं फिर भी लड़ते झगड़ते रहते हैं। यात्रा करते समय आपको किसी न किसी की तकरार या शिकायत अवश्य सुनने को मिलती है। 'धक्का क्यों मारा…? दिखता नहीं है क्या…? उतरने का नहीं तो बीच में काय को खड़ा है..? ए चल खिसक…. आदि।' सोचिए लोग व्यस्त हैं, काम पर जा रहे हैं या दिनभर काम करके थके-मादे होते हैं फिर भी भिड़ने के लिए तैयार, लड़ने के लिए तत्पर रहते हैं। इनमें इतनी ऊर्जा या शक्ति कहाँ से आती है..? यदि है भी तो इसका सार्थक सदुपयोग हो।
आजकल तो इस तरह की घटनाएँ आम हो गई हैं। कोई भी अवसर हो, कहीं भी हों, किसी की कोई परवाह नहीं। न अपने मान सम्मान की परवाह न लोकलाज की चिंता। मिलावट के कारण खाल भी मोटी हो गई है। न बड़ों का अदब रह गया और न औरतों का लिहाज। जो जहाँ है जिस हाल में है वहीं अपनी छाप छोड़ रहा है। एक बार समिति वालों के विरुद्ध सहकार समूह ने आम सभा (मीटिंग) बुला लिया। जिसकी तैयारी उन्होंने लगभग पाँच महीनें पहले से ही चुपचाप कर ली थी। अचानक इस तरह आम सभा बुलाने का उद्देश्य समझ में नहीं आया। पर सभी मौजूद रहे। जब आमसभा का श्रीगणेश हुआ तो बात कुछ समझ में आई। दरअसल ठाकरिया खानदान और विभूति राय के बीच कुछ ठनी थी और वे एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयास करने में जुटे हुए थे। आमसभा होते-होते कब व्यक्तिगत हो गया कुछ पता ही नहीं चला। जितने भी लोग उपस्थित थे किसी को कोई भनक नहीं। कहासुनी करते-करते दोनों समूह भिड़ गए। विभूतिराय समूह ने ठाकरिया समूह को तबियत से धो डाला। हालांकि कुछ लोग मध्यस्थता करने पहुँचे पर दोनो समूह का जोश व आवेश चरमसीमा पर था। नतीजा स्पष्ट था मार खाने वाला पक्ष पुलिस थाने पहुँचा पर दूसरा पक्ष और होशियार निकला। वह पहले ही अपना सेटिंग अर्थात फोन से ही जुगाड़ लगा लिया। पूरा दिन अर्थात लगभग दस घंटे का समय ऐसे ही बीत गया। अक्सर हम देखते हैं कि मनुष्य छोटी-छोटी बातों को लेकर कब उसे तूल दे देता है उसे समझ पाना मुश्किल है।
एक बार किसी कार्यक्रम के दौरान एक महिला को माँगने पर कुर्सी नहीं मिली। जबकि कुर्सी खाली नहीं थी सब बैठे हुए थे। किसी को उठाकर देना भी उचित नहीं था। इस बात को लेकर बाद में उस महिला ने इतना बवाल मचाया कि कोहराम मच गया। दो समूह बन गया और लोग आपस में भिड़ गए। दो अस्पताल पहुंच गए और दस पुलिस थाने में बंद हो गए। जबकि बात कुछ नहीं थी। सिर्फ नजरिया का फर्क है।
कई बार तो मनुष्य का अहंकार भी आड़े आ जाता है और जिसके कारण नित नई समस्या खड़ी हो जाती है। एक संभ्रांत परिवार के लोग बहुत अच्छे से रहते थे। एक बार गहनों को लेकर कुछ बात छिड़ी जिसमें बहू के मना करने पर बाप और बेटे ने मिलकर बहू का गला दबा दिया, वो बिचारी मर गई। किसी को सच्चाई बताये बिना ईलाज कराने की बात कह कर ले गए और उसका क्रियाकर्म करके लौटे। लड़की के मायके वालों ने आरोप-प्रत्यारोप किया पर अंत में समझौता हो गया। पर इसी घटना के संदेह को लेकर बाप बेटे ने विश्वासघात से पड़ोस के ही लड़के को मौत के घाट उतार दिया। वो भी सिर्फ इसलिए कि उन्हें संदेह था कि उसका चक्कर उनकी बहू के साथ रहा होगा। सोचिए ये सब क्या है..?
हालही में सुशांत के मौत की घटना आप सभी ने सुनी होगी, जिसे आत्महत्या और फिर साजिशन हत्या...कहना। क्या है..? मानवता कहाँ चली गई है। पहले लोग चींटी को भी ढूँढ़-ढूँढ़कर चारा देते थे। पशु-पक्षियों की रक्षा करते थे। कितनी सहनशीलता, सहानुभूति और दया होती थी लोंगों में….। पर आज सहनशीलता खत्म हो गई है। किसी को समझाओ तो वह समझने के लिए तैयार नहीं होता है। परिस्थितियों के साथ भी समझौता नहीं करता है। बस दूसरे को नीचा दिखाने में लगा हुआ है। कुछ विशिष्ट लोंगों को छोड़ दें तो ये समस्या हर वर्ग और समुदाय की है। बेशक लोंगों में सहनशीलता नहीं रह गई है। धैर्य और संयम की कमी है। विनम्रता तो लोंगों से कोसो दूर है। बड़ों को आप कहोगे कि काम का बोझ, दिमाग तनावग्रस्त हो गया होगा पर जब यही काम आज की युवा पीढ़ी या किशोरावस्था में करे तो भी हमारा नजरिया बदल जाता है। नौजवान है, जोश है, गलती हो जाती है। पर कुछ ऐसी गलतियाँ होती हैं जिसकी भरपाई नहीं हो पाती हैं। छोटी गलती को नहीं सुधारा गया तो बड़ी गलती लाज़मी है। यूँ समझो कि हमीं ने बड़ी गलती करने की छूट दे दी है।
अपनी बात को सलीके से कहने के लिए या और स्पष्ट करने के लिए आपका ध्यान कॉलेज में पढ़ने वाले छात्रों के बीच घटी एक घटना की तरफ खींचना चाहता हूँ। बारहवीं कक्षा के तीन छात्र थे। तीनों गहरे दोस्त थे। लगभग आठ से दस साल पुरानी उनकी दोस्ती थी। एकदम अंतरंग, एक दूसरे के घर आना जाना होता था। तीनों बड़े-बड़े सपनें पाल रखे थे। इंजीनियर और डॉक्टर बनना चाहते थे। पढ़ाई में कुछ खास नहीं थे। यहीं से संस्कार की कमी के कारण पथभ्रष्ट होते हैं। उनके मन में परीक्षा प्रश्नपत्र लीक कराने की इच्छा जागी। उनको कोई गुरु भी मिल गया जिसने पचास हजार में एक प्रश्नपत्र दिलाने का वादा किया। इनलोगों ने चार प्रश्नपत्र लीक करवाने का इरादा बना लिए। परीक्षा के बाद सैरसपाटे की भी योजना तैयार कर लिए। फिर इतनी बड़ी रकम के लिए अपहरण (Kidnapping) की योजना बनाए। दरअसल उनमें से एक के पिता गारमेंट्स का कारोबार करते थे। तीनों ने मिलकर योजना बनाई। एकदिन वह लड़का घर नहीं गया, दोस्त के यहाँ ही रुक गया। दोस्तों ने उसी के फोन से उसके घर पर फोन करके अपहरण की बात बताये और फिरौती के रूप में तीन लाख रुपए की माँग किए। दोस्त लोग उसके घर की हर पल की रिपोर्ट ले रहे थे। जब उस बच्चे का पिता रात में ही पुलिस से संपर्क किया तब उसके दोनों दोस्त थोड़ा सकपकाए। परेशान हुए और आपस में बात किए। दूसरे दिन सुबह उसको घुमाने के लिए निर्जन स्थान पर ले गए। वहाँ हथौड़ी और स्क्रूड्राइवर से मार-मारकर उसकी हत्या कर डाले। अपने ही दोस्त के साथ घोर अमानवीयता, स्क्रूड्राइवर सीने के आरपार कर डाले थे। हालांकि पुलिस ने तीन दिन में ही मामले को सुलझा लिया और उन्होंने अपराध कबूल भी लिए। पर क्यों…? सोचिए जरा दोस्तों ने ही दोस्त की जान लेकर दोस्ती को शर्मसार ही नहीं किया… घोर घिनौना अपराध किया, विश्वासघात किया। ये घटना सिर्फ एक दूषित विचार के आने और उस पर सहमति बनने से हुई। निश्चित ही उनके संस्कार कमजोर रहे होंगे जिसके कारण नैतिक पतन हुआ और विध्वंसक रास्ते को उनलोगों ने अपना लिया।
कहते हैं कि मनुष्य परिस्थितियों का दास होता है…. सच है पर इन परिस्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार है..? आज सहनशक्ति न होने के कारण लोंगों का धैर्य व संयम एकदम क्षीण हो गया है। उतावलेपन व जल्दबाजी में प्रायः गलतियाँ ही होती हैं। सच पूछिए तो हमारे बीच इस तरह की घटनाएँ आए दिन घटित हो रही हैं, पर इस पर मंथन नहीं हो रहा है। लोग इन बातों को या घटनाओं को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं जिस के कारण समाज का और पतन हो रहा है। असहिष्णुता के कारण ही आज हमारे समाज में लगभग रोज ही ऐसी-ऐसी घटनाएँ घट रही हैं जिससे मानवता शर्मसार हो रही है। पर लोंगों को इसकी परवाह नहीं है। सब के सब अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हुए हैं।
प्रा. अशोक सिंह….✒️