अपना दीपक स्वयं बनो
अपना दीपक स्वयं बनों…. कथन तो एकदम सरल है। पर सारगर्भित है। सोचिए जरा 'अपना दीपक स्वयं बनों ' कहने का तात्पर्य क्या है..? इस बात को अच्छी तरह से समझने के लिए चिंतन व मनन की आवश्यकता है। दीपक से रोशनी मिलती है, दीपक से अँधेरे का नाश होता है, दीपक से हमारा जीवन पथ प्रकाशित होता है, ज्ञान रूपी दीपक से अज्ञानतारूपी अँधकार का नाश होता है। वैसे तो इस सांसारिक जीवन में हमारे लिए पथप्रदर्शक तो मिल जाते हैं पर पथ पर हमें ही अग्रसर होना पड़ता है। कई मोड़ और दुविधा व असमंजस के पड़ाव आते हैं जहाँ कोई मार्गदर्शक नहीं होता है वहाँ हम स्वयं निर्णय लेते हैं। वह जो निर्णय लेने की योग्यता है उसको विकसित करना स्वयं का दीपक बनने जैसा है। यह जानने के लिए हमें बुद्ध के पास जाना पड़ेगा ! अर्थात उनके कथन- 'अपने दीए आप बनो' की गहराई व आशय को समझना होगा। इतनी ही जरूरत है गुरु की। गुरु बैसाखी नहीं बनने वाला है। जो बैसाखी बन जाए, वह तो दुश्मन है, गुरु नहीं है। क्योंकि जो बैसाखी बन जाए, वह तो सदा के लिए लंगड़ा कर देगा। और अगर बैसाखी पर हम निर्भर रहने लगे, तो हम अपने पैरों पर कब खड़े होंगे? अपनी गति कब खोजेंगे? अपनी ऊर्जा कब खोजेंगे?
जो हमारा हाथ पकड़कर चलाने लगे, वह सच्चा गुरु नहीं हो सकता है। वह गुरु हमें अँधेरे में रखेगा। जो कहे, मेरा तो दीया जला है, तुम्हें दीया जलाने की जरूरत क्या? देख लो मेरी रोशनी में। चले आओ मेरे साथ। उस पर भरोसा मत करना। क्योंकि आज नहीं कल रास्ते अलग हो जाएंगे। कब रास्ते अलग हो जाएंगे, कोई भी नहीं जानता। कब मौत आकर बीच में दीवाल बन जाएगी। कोई भी नहीं जानता। तब तुम एकदम घुप्प अंधेरे में छूट जाओगे। इस मर्त्य लोक में किसी का कोई ठिकाना नहीं है। कोई किसी का साथ कब तक देगा यह निश्चित नहीं है। अतः यह मानव जीवन तो अनिश्चितताओं से भरा हुआ है। इसलिए गुरु की रोशनी को अपनी रोशनी मत समझ लेना। ऐसी भूल अक्सर हो जाती है, पर हमें ऐसी भूल नहीं करनी चाहिए।
चलिए इस बात को और अच्छी तरह से समझने के लिए एक कहानी को समझते हैं। सूफियों की कहानी है कि दो आदमी एक रास्ते पर चल रहे हैं। एक आदमी के हाथ में लालटेन है और दूसरे आदमी के हाथ में लालटेन नहीं है। कुछ घंटों तक वे दोनों साथ-साथ चलते हैं। आधी रात हो गयी। मगर जिसके हाथ में लालटेन नहीं है, उसे इस बात का खयाल भी पैदा नहीं हुआ कि उसके हाथ में लालटेन नहीं है। जरूरत क्या है? दूसरे आदमी के हाथ में लालटेन है। और रोशनी पड़ रही है। और जितना जिसके हाथ में लालटेन है उसको रोशनी मिल रही है, उतनी उसको भी मिल रही है जिसके हाथ में लालटेन नहीं है। दोनों मजे से गपशप करते चले जाते हैं। फिर क्या था…? ऐसा पड़ाव आ गया, जहाँ से लालटेन वाले ने कहा कि उसका रास्ता अलग है। अलविदा कहकर वह चला जाता है। फिर दूसरे आदमी के रास्ते में घुप्प अंधेरा हो गया। दूसरे के ऊपर निर्भर होने से ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।
वैसे ही आज नहीं तो कल गुरु से विदा लेना ही पड़ेगा। या गुरु विदा हो जाएगा। सदगुरु वही है, जो विदा होने के पहले ज्ञान रूपी दीया जलाने के लिए हमें सचेत करे। इसलिए बुद्ध ने कहा है ➖ अप्प दीपो भव। अपने दीए खुद बनो। यह भी जिदंगीभर कहा, लेकिन नहीं सुना लोगों ने। जिन्होंने सुन लिया, उन्होंने तो अपने दीए जला लिए। लेकिन कुछ इसी मस्ती में रहे कि करना क्या है! बुद्ध तो हैं। आनंद से कही यह बात उन्होंने। आनंद भी उन्हीं नासमझों में एक था, जो बुद्ध की रोशनी में चालीस साल तक चलता रहा। स्वभावतः, चालीस साल तक रोशनी मिलती रहे, तो लोग भूल ही जाएंगे कि अपने पास रोशनी नहीं है, कि हम अंधे हैं। चालीस साल तक किसी जागे का साथ मिलता रहे, तो स्वभावतः भूल हो जाएगी। लोग यह भरोसा ही कर लेंगे कि हम भी पहुंच ही गए। रोशनी तो सदा रहती है। भूल-चूक होती नहीं। भटकते नहीं। गड्ढों में गिरते नहीं। और आनंद बुद्ध के सर्वाधिक निकट रहा। चालीस साल छाया की तरह साथ रहा। सुबह-सांझ, रात-दिन। चालीस साल में एक दिन भी बुद्ध को छोड़कर नहीं गया। बुद्ध भिक्षा मांगने जाएं, तो आनंद साथ जाएगा। बुद्ध सोएं, तो आनंद साथ सोएगा। बुद्ध उठें, तो आनंद साथ उठेगा। आनंद बिलकुल छाया था। भूल ही गया होगा। उसको हम क्षमा कर सकते हैं। चालीस साल रोशनी ही रोशनी! उठते-बैठते रोशनी। जागते-सोते रोशनी। भूल ही गया होगा। फिर बुद्ध का अंतिम दिन आ गया। रास्ते अलग हुए। और बुद्ध ने कहा कि अब मेरी आखिरी घड़ी आ गयी। अब मैं विदा लूंगा। भिक्षुओ! किसी को कुछ पूछना हो, तो पूछ लो। बस, आज मैं आखिरी सांस लूंगा।
जिन्होंने अपने दीए जला लिए थे, वे तो शांत अपने दीए जलाए बैठे रहे परम अनुग्रह से भरे हुए-कि न मिलता बुद्ध का साथ, तो शायद हमें याद भी न आती कि हमारे भीतर दीए के जलने की संभावना है, तो भी हमने न जलाया होता। हमें यह भी पता होता कि संभावना है, जल भी सकता है, तो विधि मालूम नहीं थी।
आखिर दीया बनाना हो, तो विधि भी तो होनी चाहिए! बाती बनानी आनी चाहिए। तेल भरना आना चाहिए। फिर दीया ऐसा होना चाहिए कि तेल बह न जाए। फिर दीए की सम्हाल भी करनी होती है। नहीं तो कभी बाती तेल में ही गिर जाएगी और दीया बुझ जाएगा। वह साज-सम्हाल भी आनी चाहिए, विधि भी आनी चाहिए। फिर चकमक पत्थर भी खोजने चाहिए। फिर आग पैदा करने की कला भी होनी चाहिए।
तो अनुग्रह से भरे थे। जिन्होने पा लिया था, वे तो शांत, चुपचाप बैठे रहे। गहन आनंद में, गहन अहोभाव में। आनंद दहाड़ मारकर रोने लगा। उसने कहा - यह आप क्या कह रहे हैं। यह कहो ही मत। मेरा क्या होगा? आ गया रास्ता अलग होने का क्षण। आज उसे पता चला कि ये चालीस साल मैं तो अंधा ही था। यह रोशनी उधार थी। यह रोशनी किसी और की थी। और यह विदाई का क्षण आ गया। और विदाई का क्षण आज नहीं कल, देर-अबेर आएगा ही। तब बुद्ध ने कहा था: आनंद! कितनी बार मैंने तुझसे कहा है, अप्प दीपो भव! अपना दीया बन। तू सुनता नहीं। अब तू समझ। चालीस साल निरंतर कहने पर तूने नहीं सुना, इसलिए रोना पड़ रहा है। देख उनको, जिन्होंने सुना। वे दीया बने शांत अपनी जगह बैठे हैं। बुद्ध के जाने से एक तरह का संवेग है। इस अपूर्व मनुष्य के साथ इतने दिन रहने का मौका मिला। आज अलग होने का क्षण आया। तो एक तरह की उदासी है। मगर दहाड़ मारकर नहीं रो रहे हैं। क्योंकि यह डर नहीं है कि अंधेरा हो जाएगा। अपना-अपना दीया उन्होंने जला लिया है।
तुम पूछते हो - ‘भगवान बुद्ध ने कहा, अपने दीए आप बनो, तो क्या सत्य की खोज में किसी भी सहारे की कोई जरूरत नहीं हैं?’
यह जरा नाजुक सवाल है। नाजुक इसलिए कि एक अर्थ में जरूरत है और एक अर्थ में जरूरत नहीं है। इस अर्थ में जरूरत है कि तुम अपने से तो शायद जाग ही न सकोगे, तुम्हारी नींद बड़ी गहरी है। कोई तुम्हें जगाए। लेकिन इस अर्थ में जरूरत नहीं है कि किसी दूसरे के जगाने से ही तुम जाग जाओगे। जब तक तुम ही न जागना चाहो, कोई तुम्हें जगा न सकेगा। और अगर तुम जागना चाहो, तो बिना किसी के जगाए भी जाग सकते हो, यह संभावना है। उदाहरण के रूप में एकलव्य का नाम जगजाहिर है। बिना गुरु के भी लोग ईश्वरीय तत्व तक पहुंचे हैं। मगर इसको जड़ सिद्धांत मत बना लेना कि बिना गुरु के कोई पहुँच गया, तो तुम भी पहुँच जाओगे या कोई भी पहुँच जाएगा। यहाँ पर त्याग, सेवा और समर्पण के भाव पर निर्भर करता है कि आपका सामर्थ्य व त्याग किस स्तर का है।
कहा गया है ➖
"माला फेरत जुग बिता पर फिरा न मन का फेर,
कर का मनिका छोड़ि के मन का मनिका फेर।"
अर्थात अज्ञानता और अनभिज्ञता के कारण ही हम कुछ चीजों को अपनाते हैं पर ऊपरी मन से जिसके कारण हमें उसका समुचित प्रतिसाद नहीं मिलता है। मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, आपसे एक सलाह लेनी है। अगर गुरु न बनाएं, तो हम मोक्ष तक पहुंच सकेंगे कि नहीं? अर्थात भवसागर से बेड़ा पार होगा कि नहीं, जीवन सफल होगा कि नहीं…आदि आदि। मैंने कहा कि तुम इतनी ही बात खुद नहीं सोच सकते, इसके लिए भी तुम मेरे पास आए! तुमने गुरु तो बना ही लिया! गुरु का मतलब क्या होता है? किसी और से पूछने गए, यह भी तुम खुद न खोज पाए! जब तक मनुष्य गुरू का अर्थ नहीं समझता, गुरू की आवश्यकता व उसकी सार्थकता नहीं समझता तब तक वह अँधेरे में भटकता रहता है। अर्थात वह बाह्य जगत में पसरे हुए दिखावे व ढोंग भरे जीवन को जीता है। मुझसे लोग आकर पूछते हैं कि आपका गुरु कौन था? हमने तो सुना कि आपका गुरु नहीं था! जब आपने बिना गुरु के पा लिया, तो हम क्यों न पा लेंगे? मैं उनसे कहता हूं: मैं कभी किसी से यह भी पूछने नहीं गया कि बिना गुरु के मिलेगा कि नही! तुम जब इतनी छोटी सी बात भी खुद निर्णय नहीं कर पाते हो, तो उस विराट सत्य के निर्णय में तुम कैसे सफल हो पाओगे?
कहा गया है कि ➖
'बिनु गुरू ज्ञान न होई…'
गुरू के बिना ज्ञान की प्राप्ति होना संभव नहीं है तो एक अर्थ में गुरु की जरूरत है। और एक अर्थ में नहीं है। अगर तुम्हारी अभीप्सा प्रगाढ़ हो, तो कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जरूरत या गैर-जरूरत, इसकी समस्या क्यों बनाते हो? जितना मिल सके किसी से ले लो। मगर इतना ध्यान रखो कि दूसरे से लिए हुए पर थोड़े दिन काम चल जाएगा। अंततः तो अपनी समृद्धि खुद ही खोजनी चाहिए। किसी के कंधे पर सवार होकर थोड़ी देर चल लो, अंततः तो अपने पैरों का बल निर्मित करना ही चाहिए। रास्ता सीधा-साफ है। प्रबल प्यास हो, तो अकेले भी पहुंच जाओगे। रास्ता इतना सीधा-साफ है कि इस पर किसी के भी साथ की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन अगर अकेले पहुंचने की हिम्मत न बनती हो, तो थोड़े दिन किसी का साथ बना लेना। लेकिन साथ को बंधन मत बना लेना। फिर ऐसा मत कहना कि बिना साथ के हम जाएंगे ही नहीं। नहीं तो तुम कभी न पहुंचोगे। क्योंकि सत्य तक तो अंततः अकेले ही पहुंचना होगा। एकांत में ही घटेगी घटना। उस एकांत में तुम्हारा गुरु भी तुम्हारे साथ मौजूद नहीं होगा।
गुरु तुम्हें संसार में मुक्त होने में सहयोगी हो सकता है। लेकिन परमात्मा से मिलने में सहयोगी नहीं हो सकता। संसार से छुड़ाने में सहयोगी हो जाएगा। संसार छूट जाए, तो फिर तुम्हें एकांत में परमात्मा से मिलना होगा। वह मिलन भीड़-भाड़ में नहीं होता।
थोड़ी दूर किसी के कदम के साथ चल लो, ताकि चलना आ जाए। मंजिल नहीं आती इससे, सिर्फ चलने की कला आती है। थोड़ी दूर किसी के पग-चिन्हों पर चल लो, ताकि पैरों को चलने का अभ्यास हो जाए। इससे मंजिल नहीं आती; मंजिल तो तुम्हारे ही चलने से आएगी; किसी और के चलने से नहीं। मेरी आंख से तुम कैसे देखोगे? हां, थोड़ी देर को तुम मेरी आंख में झांक सकते हो। तुम मेरे हृदय से कैसे अनुभव करोगे? हां, थोड़ी देर किसी गहन भाव की दशा में तुम मेरे हृदय के साथ धड़क सकते हो। निश्चित ही किसी प्रेम की घटना में थोड़ी देर को तुम्हारा हृदय और मेरा हृदय एक ही लय में बद्ध हो सकते हैं। उस समय क्षणभर को तुम्हें रोशनी दिखेगी। उस समय क्षणभर को आकाश खुला दिखायी पड़ेगा; सब बादल हट जाएंगे। लेकिन यह थोड़ी ही देर को होगा। अंततः तुम्हें अपने हृदय का सरगम खोजना ही है।
अच्छा है कि तुम्हें परमात्मा तक अकेले ही पहुंचने की संभावना है। नहीं तो किसी पर निर्भर होना पड़ता। और निर्भरता से कभी कोई मुक्ति नहीं आती। निर्भरता तो गुलामी का ही एक अच्छा नाम है। निर्भरता तो दासता ही है। वह दासता की ही दास्तान है। नए ढंग से लिखी गयी, नए लफ़्ज़ों में, नए शब्दों में, नए रूप-रंग से; लेकिन बात वही है। मूल तत्व वही है कहने का तरीका व शब्द भले ही अलग हों।
इसलिए कोई सदगुरु तुम्हें गुलाम नहीं बनाता। और जो गुलाम बना ले, वहां से भाग जाना। वहां क्षणभर मत रुकना। वहां रुकना खतरनाक है। जो तुम्हें कहे कि मेरे बिना तुम्हारा कुछ भी नहीं होगा; जो कहे कि मेरे बिना तुम कभी भी नहीं पहुंच सकोगे; जो कहे: मेरे पीछे ही चलते रहना, तो ही परमात्मा मिलेगा, नहीं तो चूक जाओगे-ऐसा जो कोई कहता हो, उससे बचना। उसे स्वयं भी अभी नहीं मिला है। क्योंकि यदि उसे स्वयं मिला होता, तो एक बात उसे साफ हो गयी होती कि परमात्मा जब मिलता है, एकांत में मिलता है; वहां कोई नहीं होता, कोई दूसरा नहीं होता। उसे परमात्मा तो मिला ही नहीं है; उसने लोगों के शोषण करने का नया ढंग, नयी तरकीब ईजाद कर ली है। उसने एक जाल ईजाद कर लिया है, जिसमें दूसरों की गरदनें फंस जाएंगी। ऐसा आदमी भीड़-भाड़ को अपने पीछे खड़ा करके अहंकार का रस लेना चाहता है। इस आदमी से सावधान रहना। इस आदमी से दूर-दूर रहना। इस आदमी के पास मत आना।
जो तुमसे कहे कि मेरे बिना परमात्मा नहीं मिलेगा, वह महान से महान असत्य बोल रहा है। क्योंकि परमात्मा उतना ही तुम्हारा है, जितना उसका। हां, यह हो सकता है कि तुम जरा लड़खड़ाते हो। वह कम लड़खड़ाता है। या उसकी लड़खड़ाहट मिट गयी है और वह तुम्हें चलने का ढंग, शैली सिखा सकता है। हां, यह हो सकता है कि उसे तैरना आ गया और तुम उसे देखकर तैरना सीख ले सकते हो। लेकिन उसके कंधों का सहारा मत लेना, अन्यथा दूसरा किनारा कभी न आएगा। उसके कंधों पर निर्भर मत हो जाना, नहीं तो वही तुम्हारी बर्बादी का कारण होगा।
इसी तरह तो यह देश बरबाद हुआ। यहां मिथ्या गुरुओं ने लोगों को गुलाम बना लिया। इस मुल्क को गुलामी की आदत पड़ गयी। इस मुल्क को निर्भर रहने की आदत पड़ गयी। यह जो हजार साल इस देश में गुलामी आयी, इसके पीछे और कोई कारण नहीं है। इसके पीछे न तो मुसलमान हैं, न मुगल हैं, न तुर्क हैं, न हूण हैं, न अंग्रेज हैं। इसके पीछे तुम्हारे मिथ्या गुरुओं का जाल है। मिथ्या गुरुओं ने तुम्हें सदियों से यह सिखाया है: निर्भर होना। उन्होंने इतना निर्भर होना सिखा दिया कि जब कोई राजनैतिक रूप से भी तुम्हारी छाती पर सवार हो गया, तुम उसी पर निर्भर हो गए। तुम जी-हुजूर उसी को कहने लगे। तुम उसी के सामने सिर झुकाकर खड़े हो गए। तुम्हें आजादी का रस ही नहीं लगा; स्वाद ही नहीं लगा।
अगर कोई मुझसे पूछे, तो तुम्हारी गुलामी की कहानी के पीछे तुम्हारे गुरुओं का हाथ है। उन्होंने तुम्हें मुक्ति नहीं सिखायी, स्वतंत्रता नहीं सिखाई। काश! बुद्ध जैसे गुरुओं की तुमने सुनी होती, तो इस देश की गुलामी का कोई कारण नहीं था। काश! तुमने व्यक्तित्व सीखा होता, निजता सीखी होती; काश! तुमने यह सीखा होता कि मुझे मुझी होना है, मुझे किसी दूसरे की प्रतिलिपी नहीं होना है मतलब ये की नकल नहीं करना है। और मुझे अपना दीया खुद बनना है, तो तुम बाहर के जगत में भी पैर जमाकर खड़े होते। यह अपमानजनक बात न घटती कि चालीस करोड़ का मुल्क मुट्ठीभर लोगों का गुलाम हो जाए! कोई भी आ जाए और यह मुल्क गुलाम हो जाए! जरूर इस मुल्क की आत्मा में गुलामी की गहरी छाप पड़ गयी। किसने डाली यह छाप? किसने यह जहर तुम्हारे खून में घोला? किसने विषाक्त की तुम्हारी आत्मा? किसने तुम्हें अंधेरे में रहने के लिए विधियां सिखायीं? तुम्हारे तथाकथित गुरुओं ने। दरअसल वे सच्चे गुरु नहीं थे।
इस योग्य बन जाना कि किसी भी दुविधा की स्थिति में अंतरात्मा की आवाज हमें सुनाई दे जो हमें सही रास्ता दिखाए। सही व गलत का भान कराए। उद्दीपन की स्थिति तक ले जाए। ऐसे गुरु तो बुद्ध जैसे व्यक्ति ही होते हैं, जो कहते हैं कि अपना दीपक स्वयं बनों।
➖प्रा. अशोक सिंह
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