ऑर्गेनिक खेती और हैड्रोपोनिक खेती का बढ़ता चलन
हालही में मैंने 4 नवंबर, 2020 के अंक में छपा एक लेख पढ़ा जिसका शीर्षक था 'लेक्चरर की नौकरी छोड़ बनें किसान' मिट्टी नहीं पानी में उगती हैं फल और सब्जियाँ। यह कारनामा गुरकीरपाल सिंह नामक व्यक्ति ने कर दिखाया। जो एक कंप्यूटर इंजीनियर थे और लेक्चरर पद पर नौकरी करते थे। उन्होंने नौकरी छोड़कर खुद को खेती के प्रति समर्पित कर दिए। वे आजकल हैड्रोपोनिक तरीके से सब्जियाँ उगा रहे हैं, जो काबिलेतारीफ है। मैं आपका ध्यान इस तरफ आकर्षित करना चाहता हूँ जो विसंगति के रूप में हमारे समाज में व्याप्त है कि शिक्षित व्यक्ति खेती करे..... कदापि नहीं..? ऐसी सोच रखनेवालों के मुँह पर सीधा तमाचा जड़ा है भाई गुरकीरपाल सिंह ने।
ये पहल आज के युवापीढ़ी के लिए अवश्य लाभकारी होगा क्योंकि जिस गति से आबादी बढ़ रही है और कृषि का अनुपात कम हो रहा है। ऐसे में कम जगह में खेती का प्रचलन बढ़ रहा है और उत्तम खेती की आवश्यकता है। जिसमें पुरानी परिपाटी से किए जाने वाले खेती को छोड़कर नई तकनीकी और पद्धतियों को अपनाया जा रहा है। इतना ही नहीं आजकल तो आर्गेनिक खेती का भी चलन बहुत जोरो से चल रहा है और इससे जुड़े हुए लोग आज बेहतर कमाई कर रहे हैं। बेशक आजकल इस क्षेत्र में नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं और इसका लाभ भी मिल रहा है। यदि थोड़ा सा इस दिशा में खोजबीन करने पर पता चलता है कि आज सुशिक्षित लोग नई तकनीकी के प्रयोग के आधार पर खेती को नये आयाम दिए हैं और सफलता प्राप्त किए हैं। इनका दावा है कि नौकरीपेशे से तीन गुना - चार गुना अधिक आमदनी होती है और आत्मनिर्भरता भी बढ़ती है। साथ ही दूसरों के लिए भी रोजगार का अवसर उपलब्ध कराने का महनी कार्य भी होता है।
हरितक्रांति व कृषि के क्षेत्र में इस तरह की क्रांति का लाभ आज की युवापीढ़ी को होगा। सभी शिक्षित व्यक्तियों को रोजगार स्वरूप सरकारी नौकरी या व्यवसाय संभव नहीं है। इस तरह जो लोग थोड़ा सा हटकर कुछ अलग कार्य करने की सोच रखते हैं उनके लिए सुनहरा मौका, अवसर व क्षेत्र है। इससे आवश्यकताओं की पूर्ति भी होगी और रोजगार का दायरा भी बढ़ेगा।
पहले कहा जाता था ➖
"उत्तम खेती माध्यम बान अधम चाकरी भीख निदान।"
बेशक यह एक कालजयी कहावत है जो आज चरितार्थ हो रही है। आप सभी लोग किसी न किसी स्तर पर इसके बारे में पढ़े होंगे या सुनें होंगे। जिसका मतलब है - रोजगार में सबसे श्रेष्ठ खेती को माना, फिर व्यापार को, उसके बाद नौकरी का स्थान आता है, जब इन तीनों की प्राप्ति न हो तो भीख माँगकर जीवन यापन करने को भी उपयुक्त बताया गया। यह कहावत सदियों से चला आ रहा है जो पुराने जमाने में सबसे अधिक अनुकूल थी और आज मौजूदा समय में भी उतना ही उपयुक्त साबित हो रही है।
कहावत की प्रासंगिकता आज भी सिद्ध हो रही है। दूसरी तरफ कोरोना काल में भी बहुत से प्रभावित प्रवासी अब अपनें मूलगांव में ही खेती की ओर उन्मुख हुए हैं।
आज भी भारत के अधिकांश लोंगों की आजीविका का आधार खेती है। यदि थोड़ा संयम रखें और प्राकृतिक संसाधनों को ध्यान में रखते हुए नई तकनीकी का प्रयोग करते हुए तालमेल बिठाकर आजीविका और आर्थिक संपन्नता सुनिश्चित कर सकते हैं। हालांकि बेमौसम की बरसात या बरसात की अनिश्चितता थोड़ी सी समस्या बन जाती है पर विदेशी तकनीकी का प्रयोग करके इस तरह की समस्याओं से निबटा जा सकता है। अब समस्या सिर्फ बाढ़ की रह जाती है जो व्यापक रूप से किसानों को प्रभावित करता है। हालांकि अकाल भी गम्भीर समस्या बना हुआ है। ऐसे में कृत्रिम साधनों व संसाधनों की महत्ता बढ़ जाती है।
हालांकि उत्तरी भारत में खेती बहुत अधिक चुनौती पूर्ण बन गया है। खासकर के उत्तर प्रदेश में आवारा पशुओं व जानवरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण खेती करना, फसलों को बचाना व उनकी सुरक्षा करना बहुत ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अब राज्य सरकारें भी इन समस्याओं को गंभीरता से ले रहीं हैं और इससे निबटने के लिए व्यापक रूप से युध्द स्तर पर तैयारी कर रही है। आवारा पशुओं पर लगाम लगाने व नियंत्रण में लाने के लिए पहल शुरू हो गई है। अतः पशुओं का भी पंजीकरण किया जा रहा है। अब पाले हुए पशुओं को खुला नहीं छोड़ सकते, निसंदेह इससे रोकथाम होगी और फसलों को संरक्षण मिलेगा। पर इस कार्य में भी लोंगों के सहयोग की आवश्यकता होगी। दूसरी तरफ नई तकनीकियों का प्रयोग करके कम खेत या जगह में कम लागत में सुनियोजित तरीके से फसलों का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। इस कार्य में अब सरकार भी सक्रिय हुई है और पूरा सहयोग कर रही हैं।
आजकल ऑर्गेनिक खेती का जलवा है। लोग ऑर्गेनिक खाद्य वस्तुओं की तरफ रुख कर दिए हैं। हालांकि ये थोड़ा सा खर्चीला है। इसमें प्राकृतिक खाद का प्रयोग किया जाता है। दूसरी तरफ हैड्रोपोनिक फार्मिंग यानी पानी की खेती में कई तरह की सब्जियाँ, फल और फसलें उगाई जाती हैं जो सच में किसी चमत्कार या क्रांति से कम नहीं है। ऐसे में बिना मिट्टी के खेती करके भारी मात्रा में फल और सब्जियां उगाकर आर्थिक रूप से सुदृढ़ बन सकते हैं। जिस तरह से गुरकीरपाल सिंह आज अपनी सैलरी का तीन गुना कमाई कर रहे हैं और साथ ही अन्य लोंगों को रोजगार के अवसर भी उपलब्ध करवा रहे हैं। यही नहीं अब तो शहरों व महानगरों के आसपास के इलाकों में थोड़े-बहुत छोटे-मोटे जगह पर भी ऐसे तर्ज पर कार्य किए जा रहे हैं। आइए इसे थोड़ा अच्छी तरह से समझ लेते हैं।
हैड्रोपोनिक शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। जिसमें 'हाइड्रो' का अर्थ 'पानी' है और 'पोनोस' यानी लेबर। जिससे एक नया शब्द बनता है जिसका अर्थ होता है 'बिना मिट्टी के'। अर्थात बिना मिट्टी के सिर्फ पानी की सहायता से पौधे उगाना। बताया जाता है कि इसमें पौधों के बढ़ने की रफ्तार 50 फीसदी अधिक होती है। दूसरी तरफ आजकल इनडोर खेती का भी चलन आ गया है। हालांकि इसमें झमेले हैं पर कारगर है, इसी को ग्रीन रेवोल्यूशन कहा जाता है। जिसमें प्रकाश, नमी और तापमान को नियंत्रित किया जाता है जो कि व्यापक स्तर पर संभव नहीं है। विदेशों में तो हैड्रोपोनिक फार्मिंग को विशेष रूप से अपनाया गया और उसे बढ़ावा भी दिया गया। हमारे देश में भी आज खेती योग्य खेतों की कमी होती जा रही है। जो है भी तो बेमौसम की मार से प्रभावित है। फिर भी आजकल युवा वर्ग इस राह में आनेवाली चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए अपने आपको तैयार कर रहे हैं और नई तकनिकी का प्रयोग करके उत्तम खेती को बढ़ावा दे रहे हैं और धड़ल्ले से मुनाफा कमा रहे हैं। यदि ये कहें कि आगे चलकर यह क्षेत्र भी रोजगार के मामले में किसी उद्योग से कम नहीं होगा तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
हम लोंगों का झुकाव भी अब ऑर्गेनिक उत्पाद की ओर अधिक है। दूसरी तरफ यदि ये कहें कि भले ही हम नई तकनीकियों का प्रयोग कर रहे हैं और उत्पाद को बढ़ा रहे हैं पर असल में देखा जाए तो हम फिर से अपने मूल की तरफ लौट रहे हैं सिर्फ और सिर्फ स्वरूप अलग है। आपलोगों को याद होगा वैसे आजभी सिंहाड़े, लीची, कमलगट्टे आदि की खेती पानी में ही होती है। उसी का सुधारित व व्यापक प्रयोग नई व विदेशी तकनीकी के रूप में विकसित हुई है, बेशक इस नये प्रयोग में प्राकृतिक संसाधनों की अपेक्षा उपकरणों को महत्त्व दिया गया है।
आज कोरोना काल में जिनका रोजगार प्रभावित हुआ है या यूँ कहें कि पिछले सात महीनें से जो लोग खेती में लपट गए हैं और खेती उन्हें रास भी आ रही है तो निश्चित ही वे लोग शहरों या महानगरों का रुख नहीं करेंगे। पर ऐसे लोंगों की तादाद कम है। लेकिन जिन लोंगों के पास सुविधा उपलब्ध है वे एकबार फिर से खेती के मोह में पड़े हैं और खेती ने उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया है। अतः युवावर्ग अब मिट्टी की सोंधी खुशबू में अपना भाग्य आजमा रहे हैं।
➖ अशोक सिंह 'अक्स'
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