कान की व्यथा कान की जुबानी
इस दुनिया में कोई पूर्ण नहीं है… सभी अपूर्ण हैं। कोई सुखी नहीं है सभी दुखी हैं। जिसके पास सबकुछ है फिर भी वो उसका भोग आनन्द पूर्वक न करके जो नहीं है या जो अप्राप्य है उसके लिए दुखी है। सभी के मन में कोई न कोई व्यथा है जिसने आहत कर रखा है। औरों की बात तो छोड़ो एक दिन कान बेचारा अपनी व्यथा का रोना लेकर बैठ गया। कहने लगा सुनिये साहब ध्यान से मेरी आपबीती, अपने दिल की बात आपसे साझा कर रहा हूँ।
मैं कान हूँ....., हाँ-हाँ सही सुना आपने 'मानव कान'। मेरे बिना इनसान की कोई छवि नहीं है। उसकी शोभा व सौंदर्य मेरे कारण ही तो है। दरअसल मैंने ही समाज में उसकी सार्थकता व श्रेष्ठता को साबित किया है।
हम दो हैं…..दोनों एकदम जुड़वा भाई...हमारा रंगरूप, सौंदर्य व उपयोगिता एक जैसी ही है। लेकिन हमारी किस्मत ही ऐसी है कि आज तक हमने एक दूसरे को देखा तक नहीं, पता नहीं.. कौन से श्राप के कारण हमें विपरित दिशा में चिपका कर भेजा गया है। हम चाहकर भी एक दूसरे को नहीं देख पाते। दु:ख सिर्फ इतना ही नहीं है...हमें जिम्मेदारी सिर्फ सुनने की मिली है......गालियाँ हों या तालियाँ.., अच्छा हो या बुरा..सब हम ही सुनते हैं...ये बात और है कि समय के साथ मेरी उपयोगिता को और अधिक व्यापक बना दिया गया है। पर आरोप भी भयंकर से भयंकर लगते रहते हैं। सीना छलनी हो जाता है। अविश्वसनीयता का आरोप कौन सहन कर सकता है। लोगबाग कहते हैं कि मैं एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता हूँ….. एक साथ दोनों की ईमानदारी पर संदेह करना निसंदेह वेदना व पीड़ा से त्रस्त कर देता है।
हमारा काम सुनने तक तो ठीक था हम अच्छा बुरा सब सुनते थे। पर अब धीरे-धीरे हमें खूंटी समझा जाने लगा… पहले मनुष्य जनेऊ कान पर टाँगना शुरू किया….. फिर चश्मे का बोझ डाला गया, फ्रेम की डण्डी को हम पर फँसाया गया...ये दर्द भी हँसते-हँसते सहा हमने… दरअसल परोपकारी स्वभाव जो है। पर अति हो गई..। क्यों भाई..? चश्मे का मामला तो आँखो का है तो हमें बीच में घसीटने का मतलब क्या है...? हम बोलते नहीं तो क्या हुआ, सुनते तो हैं ना...हर जगह बोलने वाले ही क्यों आगे रहते है....उन्हीं की कद्र क्यों होती है।
हमेशा से मुझे ही सताया गया। बचपन में पढ़ाई में किसी का दिमाग काम न करे तो मास्टर जी हमें ही मरोड़ते हैं। जवान हुए तो आदमी, औरतें सबने सुंदर - सुंदर लौंग, बालियाँ, झुमके आदि बनवाकर हम पर ही लटकाये...! भेदन व छेदन हमारा हुआ, और तारीफ चेहरे की ...! और तो और...श्रृंगार देखो... आँखों के लिए काजल… मुँह के लिए क्रीमें...होठों के लिए लिपस्टिक...हमने आज तक कुछ माँगा हो तो बताओ… कहीं आपने सुना है कि ये कान के लिए किरिमयी या किपिस्टिक है।
कभी किसी कवि ने, शायर ने कान की कोई तारीफ की हो तो बताओ… इनकी नजर में आँखे, होंठ, गाल, ये ही सब कुछ है… कभी आप ने कान काव्य, कान महाकाव्य, कान पुराण या कान ग्रंथ लिखा हुआ पाया या पढ़ा… अजी बिल्कुल ही नहीं। वैसे तो दूसरों से उम्मीदें नहीं थी। पर बिहारी जी से बहुत उम्मीदें थी लेकिन उन्होंने भी हमारी उपेक्षा कर दी। हम तो जैसे किसी मृत्युभोज की बची खुची दो पूड़ियाँ हैं.., जिसे उठाकर चेहरे के साइड में चिपका दिया बस...और तो और, कई बार बालों के चक्कर में हम पर भी कट लगते हैं ... कभी सफाचट करनेवाला छूरा तो कभी कुतरती कैंची…. हमें डिटाॅल लगाकर पुचकार दिया जाता है। कुछ नादान व निरीह लोंगों के ध्यान का केंद्र भी बनें तो कान देना, कान कुतरना, दीवार को भी कान होना, कान में तेल डालकर बैठना, कान पर जूँ न रेंगना आदि आदि। उन्होंने सिर्फ मुहावरे और कहावत तक ही सीमित रखा… खींच दी एक लक्ष्मण रेखा… जिसे आजतक पार नहीं कर पाए। लाँघने में डर लगता है। दरअसल आप सभी जानते हैं कि लक्ष्मण रेखा लाँघने के कारण सीता मइया की क्या दशा हुई थी। सो आजतक लाँघने की हिम्मत नहीं हुई।
बातें बहुत सी हैं, किससे कहें...? सच बताऊँ कहने में भी डर लगता है। कहते है दर्द बाँटने से मन हल्का हो जाता है...पर रहीम जी की बात याद आते ही मन मसोसकर रह जाता है। आपको भी पता होगा…
"रहिमन निज मन की व्यथा मनहिं राखौ गोय,
सुनि अठिलैहैं लोग सब बाँटि न लैहैं कोय।"
इस सच्चाई को जानने के बाद भी बहुतेरा अपने आपको समझने की नाकाम कोशिश करता हूँ। आँख से कहूँ तो वे आँसू टपकाती हैं..अपना रंग रूप बदलकर लाल-लाल हो जाती हैं तो कभी भावुक होकर सिर्फ सहानुभूति में आँसू टपका देती हैं। बेचारे नाक से क्या कहूँ वो भी तो बहता रहता है--- सूडूक-सूडूक। मुँह से कहूँ तो वो हाय हाय करके रोता है...और बताऊँ...।
पण्डित जी का जनेऊ, टेलर मास्टर की पेंसिल, मिस्त्री की बची हुई गुटखे की पुड़िया, मोवाइल का ईयरफोन सब हम ही सम्भालते हैं। और आजकल जबसे कोरोना महामारी आयी है तभी से ये नया-नया मास्क का झंझट भी हम ही झेल रहे हैं...कान नहीं जैसे पक्की खूँटियाँ हैं। हम...और भी कुछ टाँगना, लटकाना हो तो ले आओ भाई। तैयार हैं हम दोनों भाई...! इसमें हमारा बिल्कुल स्वार्थ नहीं है। हम तो परोपकार हेतु समर्पित हैं।
आखिरी दम तक साथ निभाएंगे और उफ़..! तक नहीं करेंगें। हम वादे के एकदम पक्के हैं.. जैसे ➖
"रघुकुल रीति सदा चलि आई, प्राण जाय पर वचन न जाई।"
प्रा. अशोक सिंह
☎️ 9867889171