हिंदी साहित्य के धरोहर "मुंशी प्रेमचंद"
जनमानस का लेखक, उपन्यासों का सम्राट और कलम का सिपाही बनना सबके बस की बात नहीं है। यह कारनामा सिर्फ मुंशी प्रेमचंद जी ने ही कर दिखाया। सादा जीवन उच्च विचार से ओतप्रोत ऐसा साहित्यकार जो साहित्य और ग्रामीण भारत की समस्याओं के ज्यादा करीब रहा। जबकि उस समय भी लिखने के लिए लोग अलग-अलग विषय क्षेत्र और मुद्दे का चयन करते थे पर हमारे जन लेखक के रग-रग में किसान भाइयों की समस्याएँ और गाँवों में रहने वालों की समस्याएँ समायी हुई थी। बेशक इससे यदि परे हटकर भी कुछ करने का प्रयास किया तो सामाजिक विसंगतियों को लेकर जिसमें आर्थिक विषमता, दहेजप्रथा, बेमेल विवाह, बालविवाह, मनुष्य के दोहरे चरित्र, खोखली मान प्रतिष्ठा, ढोंग आडंबर, अंधविश्वास, दलितों का शोषण और छुआछूत जैसी समस्याओं पर लेखनी के माध्यम से आवाज को बुलंद किया। जो कार्य तलवार नहीं कर पाई उस कार्य को कलम के माध्यम से प्रशस्त करने में मुंशी जी माहिर थे और बखूबी उस कार्य को अंजाम भी दिया। लेखक व साहित्यकार कभी मरते नहीं हैं, उनके विचार और साहित्य हमेशा उन्हें हमारे बीच जीवित रखते हैं। ठीक उसी तरह मुंशी प्रेमचंदजी भी अपनी रचनाओं के माध्यम से हमारे बीच आज भी जीवित हैं।
हिंदी के महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंदजी की पुस्तकों और कहानियों से हमारा बचपन से ही सामना होता रहा है। उनकी कहानियों ने लाखों-करोड़ों लोगों के दिमाग पर अमिट छाप छोड़ी है और आज भी उन्हें भारत के सबसे महत्वपूर्ण और महान लेखक के तौर पर शुमार किया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि कलम के जादूगर प्रेमचंद सिर्फ कहानियां ही नहीं लिखते थे बल्कि वे उपन्यास और नाटक भी लिखे हैं। इतना ही नहीं एक फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिख चुके हैं। जी हाँ, साल 1934 में रिलीज हुई इस फिल्म का नाम मिल मजदूर था।
प्रेमचंद के उपनाम से लिखने वाले धनपत राय श्रीवास्तव हिन्दी और उर्दू के महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। उन्हें मुंशी प्रेमचंद व नवाब राय नाम से भी जाना जाता है और उपन्यास सम्राट की उपाधि भी उन्हें दी गई है।
मुंशी प्रेमचंदजी का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के निकट लमही गांव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनंदी देवी था तथा पिता मुंशी अजायबराय लमही में डाकमुंशी थे। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू,फारसी से हुआ था। पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया था। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने 'तिलिस्मे होशरूबा' पढ़ लिया था और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार',मिरजा रुसबा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया था।
1898 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक पद पर नियुक्त हो गए थे।। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी 1910 में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और 1919 में बी.ए.पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए थे।
सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहांत हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय था। उनका पहला विवाह पंद्रह साल की उम्र में ही हो गया था जो सफल नहीं हुआ। उन्होंने 1906 में दूसरा विवाह अपनी प्रगतिशील परंपरा के अनुरूप बाल-विधवा शिवरानी देवी से किया। जिनसे उनकी तीन संतानें हुईं- श्रीपत राय,अमृत राय और कमला देवी ।
मुंशी प्रेमचंद जी की रचनाएँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की रचनाएँ हैं। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना किए। जिस युग में प्रेमचंद ने कलम उठाई थी, उस समय उनके पीछे ऐसी कोई ठोस विरासत नहीं थी और न ही विचार था। फिर भी प्रेमचंद जी ने गोदान जैसी रचना के रूप में अपनी छाप छोड़ी। उन्होंने एक से बढ़कर एक रचनाएँ लिखी और हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया। तब से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य में ना ही उनके जैसा कोई हुआ है और ना ही कोई और होगा। उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों के एक वर्ष पहले तक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ। बेशक जो भी इस दुनिया में आया है उसे जाना ही है वैसे ही वे भी चले गए पर जाने से पहले वे हिंदी साहित्य को संपन्न कर गए। हिंदी साहित्य में उनका नाम सदैव अमर रहेगा और समग्र लेखक समाज उनके प्रति सदैव कृतज्ञ रहेगा।
मुंशी प्रेमचंद जी आज भी स्मरणीय हैं और कल भी रहेंगें…..।
➖ प्रा. अशोक सिंह