सबसे सरल, सहज और दुर्बल प्राणी 'शिक्षक'
आप हमेशा से ही इस समाज में एक ऐसे वर्ग, समुदाय या समूह को देखते आये हैं जो कमजोर, दुर्बल या स्वभाव से सरल होता है और दुनिया वाले या अन्य लोग उसके साथ कितनी जटिलता, सख्ती या बेदर्दी से पेश आते हैं। वो बेचारा अपना दुःख भी खुलकर व्यक्त नहीं कर पाता है। वैसे तो उसे समाज का निर्माता, देश का निर्माण करने वाला, विश्वबंधुत्व की भावना को विकसित करने वाला आदि..आदि कहा जाता है।
बेचारा शिक्षक कोरोना काल में भी भेदभाव व निरीहता का शिकार हो रहा है। एकतरफ ऑनलाइन शिक्षा की चुनौतियों को स्वीकार कर अच्छे से शिक्षण कार्य को अंजाम दे रहा है तो दूसरी तरफ संस्थाओं में जाकर उपस्थिति देने के लिए विवश किया जा रहा है। पहले संस्था वालों ने विवश किया और अब तो प्रशासन का निर्देश भी आ गया। एक तरफ कोरोना काल के जानलेवा घातक विषाणुओं का खतरा तो दूसरी तरफ उपस्थित न होने पर सैलरी काटने की धमकी। शिक्षक हमेशा भलाई के कार्य में संलिप्त रहते हैं। चाहे वे विद्यालय में रहें या विद्यालय के बाहर हमेशा समाज व देश के भलाई के कार्य को बखूबी अंजाम देते हैं। आज शिक्षकों की जो ज्वलंत समस्याएं हैं उस तरफ आपलोगों का ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
प्रशासन ने पिछले सप्ताह से ही एक अधिसूचना उपस्थिति के संबंध में जारी किया और उसके बाद संस्थाओं ने नोटिस निकालकर उपस्थित होने के लिए बाध्य किया। पर जो संस्थान से दूर या मुंबई से सटे उपनगरों में रहते हैं उन्हें ऐसी गम्भीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति नहीं है। ऐसे में निजीवाहनों से सफर करना व ट्राफिक का सामना करना किसी युद्ध से कम नहीं है।
पिछले दिन अर्थात 3/11/2020 को काफी जद्दोजहद अर्थात 3 घण्टे संघर्षपूर्ण सफर तय करके संस्था तक पहुँचे और उपस्थिति दर्ज कराई। हालाँकि वहाँ कोई कार्य नहीं करना था, तीन घंटे तक कुर्सी तोड़ने व गॉसिप के अलावा कोई कार्य नहीं था। जब ऑनलाइन शिक्षा का कार्य घर से ही अच्छे से हो रहा है तो अनावश्यक रूप से तबतक बुलाना उचित नहीं है जबतक लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति नहीं मिल जाती है।
ऐसे भयंकर व विषम परिस्थितियों में और सहजता प्रदान करने की आवश्यकता है। शिक्षक अपने कार्य अर्थात अपने उत्तरदायित्व का निर्वहन करना अच्छी तरह से जानते हैं फिर इस तरह का मानसिक दबाव व तनाव पैदा करना बिल्कुल उचित नहीं है। अतः प्रकरण की गंभीरता को समझते हुए तत्काल प्रभाव से शिक्षकों को भी लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति दी जाए। इतना ही नहीं आमलोगों के लिए भी आवश्यकता को ध्यान में रखकर सफर करने की अनुमति देनी चाहिए।
अभीतक देखा गया कि लोकल ट्रेन में अतिआवश्यक सेवा प्रदान करनेवालों के अलावा पुलिसकर्मी, वॉचमैन, सिक्यूरिटी गार्ड, वकील व उनके क्लर्क सहित बैंक कर्मचारियों को सफर करने की अनुमति दी गई है। जब शिक्षकों को लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति नहीं दी गई तो उन्हें संस्थाओं में उपस्थित होने की अधिसूचना किस आधार पर जारी किया गया। क्या शिक्षकों के साथ ही सौतेलापन का व्यवहार हमेशा से ही प्रशासन करती आई है। बहुत से संस्थान तो जून माह से लगातार बुला रहे हैं, ऐसे में कर्मचारियों की जेब पर आवश्यकता से अधिक बोझ बढ़ गया है। एक तरफ बढ़ती महँगाई और दूसरी तरफ ऐसे तुगलकी निरंकुश तानाशाही फरमानों के कारण लोंगों में तनाव की स्थिति बनी हुई है। लोग सहमें और डरे हुए हैं।
अतः प्रशासन को परिस्थितियों व समस्याओं को ध्यान में रखते हुए तत्काल प्रभाव से शिक्षकों व अन्य को लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति प्रदान करना चाहिए अन्यथा अपनी तुगलकी फरमान को वापस ले। बेशक आज के दौर में इस तरह की हरकतों के कारण लोंगों में प्रशासन व व्यवस्था के प्रति असंतोष की भावना पनपने लगी है। ऐसी स्थिति में निश्चित ही आगे की कार्यप्रणाली भी प्रभावित होगी। शिक्षकों की गरिमा को ध्यान में रखते हुए उन्हें भी लोकल ट्रेन में सफर करने की अनुमति तत्काल प्रभाव से मिलनी चाहिए।
शिक्षक बेचारा हमेशा से ही प्रशासन के हाथ में हाथ मिलाता रहा है, जो भी कार्य सौंपा गया उसने हमेशा ही उसे उचित अंजाम दिया। चाहे सर्वे का कार्य हो या इलेक्शन, आधार कार्ड हो या राशनकार्ड, वोटिंग कार्ड हो या कोविड सर्वेक्षण के कार्य सभी में शिक्षक मुस्तैदी से कार्य को अंजाम देते दिखाई देता है। फिर उसे प्रशासन अनदेखा व नजरअंदाज कैसे कर सकती है.... अब उसके द्वारा घर से किया जाने वाला ऑनलाइन शिक्षा का कार्य लोंगों की आँखों की किरकिरी बनी हुई है। सो क्या किया जाए.. हर किसी को संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। पर अब भी खतरा टला नहीं है, वैक्सीन आने तक सावधानी बरतनी जरूरी है। ये बात हर एक व्यक्ति को समझ लेनी चाहिए। इस कोरोना काल ने हमें इस बात की सीख दी है कि पैसा ही सबकुछ नहीं है, भौतिक सुख के बिना भी जिया जा सकता है, आवश्यकताएँ कम की जा सकती हैं। बिखरी हुई जिंदगी को समेटा जा सकता है। पिछले आठ महीनें में हमने जीवन को समेटने की पूरी कोशिश किए हैं।
गुरुओं की गरिमा व महिमा को समझो, पहचानों और उन्हें सम्मान दो..उनके साथ न्याय करो। भले ही वो आवाज नहीं उठता है तो इसका मतलब ये नहीं होता है कि वो मूक है... या वो बोलना नहीं जानता है। वह तो शिक्षित और समझदार होने का परिचायक है पर लोग उसकी सरलता और सहजता को दुर्बलता मानकर उसका भरपूर फायदा उठाने से भी नहीं चूकते हैं।
➖ अशोक सिंह 'अक्स'
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