भारत का स्विट्जरलैंड
एक लंबे अरसे के बाद मातारानी के यहाँ से बुलावा आ ही गया। हमनें मातारानी वैष्णोदेवी का दर्शन करने के पश्चात दूसरे दिन हमनें कटरा से ही अगले सात दिन के लिए ट्रैवलर फोर्स रिजर्व कर लिया था। कटरा से सुबह हम सब डलहौजी के लिए रवाना हुए थे। नवंबर माह का अंतिम सप्ताह चल रहा था। सैलानियों का जबरदस्त जमावड़ा था। जम्मू माधोपुर वाया पठानकोट होते हुए हम लोग शाम सात बजे के लगभग डलहौजी पहुँचे थे। सफर के दौरान सिर्फ नाश्ता, दोपहर के भोजन के लिए रुके थे। हाँ, और एक जगह चिंचवटी माता के मंदिर का दर्शन करने के लिए रुके थे, नहीं तो पूरे बारह घंटे का सफर। उफ! कितना घुमावदार रास्ता। हम कुल मिलाकर नौ लोग थे। जिसमें से दो लोंगों को छोड़कर बाकी सभी को उल्टियाँ होने लगी थी।
डलहौजी में सुभाष चौक के पास होटेल बुक किया गया था पर सुविधाजनक न होने के कारण हमनें वहाँ से खज्जियार के लिए कूच कर दिया। लक्कड़मंडी होते हुए अँधेरी रात में घुमावदार-चक्करदार सड़क से होते हुए रात साढ़े दस बजे खज्जियार पहुँचे थे। वहीं एक होटेल में मुकाम किया गया। तीन कमरे में हम नौ लोग ठहरे थे। वैसे देखा जाए तो पूरे होटेल में सिर्फ हमी लोग थे। दरअसल सैलानियों के ज्यादातर जमावड़ा डलहौजी में ही होता है, डलहौजी वहाँ का प्रमुख स्थान है जहाँ सारी सुविधाएं उपलब्ध हैं। खज्जियार में आपको दूर-दूर तक जंगल अर्थात देवदार के वृक्ष व खाइयों के सिवा कुछ नहीं दिखाई देता है। शायद इसीलिए लोग खज्जियार में नहीं रुकते या फिर वे ही रुकते हैं जिन्हें प्रकृति की गोद में रहना अच्छा लगता हो।सुबह का नज़ारा गजब का था। कभी हमनें सपनें में भी ऐसे नज़ारे के बारे में नहीं सोचा था। अदभुत..! जिस होटल में हम ठहरे थे उसकी खिड़की से जो बर्फ का नज़ारा दिखा... वो लाजवाब था। होटल भी लकड़ी का बना हुआ। किसी भी कमरे में पंखा नहीं लगा था। होटेल में पहुँचते ही हमारे अभिन्न मित्र गिरीश भाई (चिम्पांजी) ने मिश्रा जी से पूछा, 'यार कैसी घटिया जगह है..? कहने के लिए होटेल है और कमरे में न ऐसी है और न पंखा है।'
बात मेरे तक आई तो मुझे भी थोड़ी हैरानी हुई। मैंने मैनेजर से पूछा, "भाई कमरे में पंखे नहीं हैं, लोग कैसे रहते होंगे..?
मैनेजर ने कहा, "गर्मी में भी ठंडी पड़ती है, दिसंबर से फरवरी-मार्च तक सबकुछ बंद रहता है। तीन से चार महीनें इतना बर्फबारी होता है कि रास्ते बंद होते हैं।"
खैर इसका प्रमाण हमें दो घंटे बाद मिल गया। होटल का कंबल पर्याप्त नहीं था, हमें अपना कंबल भी निकालना पड़ा और जैकेट पहनकर सोए। दरअसल सोए क्या सिमटकर कंपकपी के साथ कब आँख लग गयी पता ही नहीं चला। और इसके बाद जब आँख खुली और हमनें जो खिड़की खोला... ऐसा लगा जैसे अचानक बर्फ हमारे शरीर में प्रवेश कर गई। हद तो तब हो गयी कि घंटे भर में मेरी छोटी उँगली के किनारे से अनायास खून दिखने लगा। होंठों पर पपड़ी सी जम गई। पर घूमने व प्रकृति का नजारा देखने की ललक थी सो ठंडी को नजरअंदाज कर प्राकृतिक सुषमा में एकाकार होने लगे। वास्तव में उस अनुपम छटा का वर्णन करने के लिए शब्द संयोजन संभव नहीं हुआ...बस इतना ही कह सकता हूँ - 'अदभुत और अलौकिक।' शायद इसीलिए मिनी स्विट्जरलैंड कहा गया है।
घूमने जाते समय हमने देखा था कि होटल ढलान पर बना हुआ था नीचे की तरफ बहुत गहरी खाई थी। वहाँ आस-पास सारे होटल ऐसे ही बने थे। खज्जियार झील का नज़ारा देखने लायक था। चारो तरफ देवदार के ऊँचे-ऊँचे वृक्ष, बीचोबीच स्थित झील। वैसे अब वह सिर्फ नाम का ही झील है दरअसल उसे कुछ समय के लिए बर्फ का झील कहें तो उचित होगा। ठंड की वजह से सैलानी वहाँ कम थे। वहीं ठहरने के कारण हमलोग सुबह जल्दी पहुँच गए थे। दूसरे लोग डलहौजी से आते हैं।
खज्जियार से हम लोग एक दो पॉइंट का नजारा लेते हुए लक्कड़मंडी के पास स्थित कालाटॉप पहुँचे। बहुत ही सुंदर व रमणीय स्थान। उस स्थान की प्राकृतिक सौंदर्य व खूबसूरती के कारण उसे भारत का स्विट्ज़रलैंड कहा जाता है। वैसे तो मैं कभी स्विट्ज़रलैंड नहीं गया पर कालाटॉप की खूबसूरती को देखकर सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि स्विट्जरलैंड कैसा होगा..? प्रवेशद्वार के पास ही 'भारत का स्विट्ज़रलैंड' लिखा बोर्ड अंग्रेज़ी और हिंदी में लगा हुआ है। उस स्थान पर पांच घंटे का समय कैसे बीत गया पता ही नहीं चला। सर्दी का अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि चाय छानते ही ठंडा हो जाता था। वहाँ सर्दी से बचने के लिए गरमागरम चाय का ही सहारा था और उसके साथ कांदे-बटाटे की भजिया लाजवाब था।
कई दार्शनिक स्थलों का भ्रमण करते हुए हम सब चंबा के लिए रवाना हुए थे। पूरा सफर एक एडवेंचरस एक्टिविटीज के जैसा था। घुमावदार-खतरनाक मोड़, सँकरा रास्ता कहीं भी कोई बेरिकेड्स नहीं था। दूर-दूर तक सिर्फ पहाड़ दिखाई दे रहा था और हम सब नीचे उतरते जा रहे थे। जैसे-जैसे चंबा की तरफ बढ़ रहे थे वैसे-वैसे ये एहसास हो रहा था कि हम तो सिर्फ ऊपर से नीचे उतर रहे थे। जब चंबा डैम को देखा तो बाहरी हिस्से के खाड़ी की गहराई को देखकर उस डैम की गहराई व उसकी क्षमता और विशालता का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। उस पर ही बिजली उत्पादन के तीन प्रकल्प लगभग तीन चरणों में पूरे किए गए हैं जिसकी बिजली उत्पादन क्षमता लगभग 1100MW है। बताया जाता है कि वहाँ का पानी 'वॉटर स्पोर्ट्स' के लिए अनुकूल है। पर वॉटर स्पोर्ट्स काफी महँगे हैं, साधारण बोटिंग की फेरी जो आधे घंटे की होती है उसके लिए ₹500/ शुल्क रखा गया था। बहुत प्रयास के बाद 8+1 की सुविधा मिली थी। रावी नदी के उस पानी में जलजीव नहीं पलते अर्थात खतरनाक जलजीवों के लिए अनुकूल नहीं है, इसलिए पूरीतरह से सुरक्षित है। एक तरफ सबकुछ जानने व देखने की कौतूहलता थी तो दूसरी तरफ एक अनजाना भय भी मन में उन अनिष्ट घटनाओं के बारे में सोचने के लिए बाध्य कर रहा था जिसकी हमनें अपेक्षा नहीं करते। वहाँ चप्पे-चप्पे पर उस विशाल प्रकल्प का पूरा विवरण दर्ज था और साथ ही स्पष्ट शब्दों में चेतावनी लिखी गई थी, लगातार उदघोषणा की जा रही थी। चारो तरफ संरक्षक तैनात थे, जो किसी को भी प्रतिबंधित क्षेत्र में जाने से रोक रहे थे।
इस ट्रिप के दौरान डलहौजी पब्लिक स्कूल हमारे आकर्षण का मुख्य केंद्र रहा। इस स्कूल के संकुल में पैटन टैंक और फाइटर जेट स्कूल की शोभा बढ़ा रहे हैं। देखने में तीन किलोमीटर का दायरा ऐसा प्रतीत होता था जैसे हम विदेश में हों। ये वही स्कूल है जिसमें गदर फ़िल्म का गाना 'मैं निकला गड्डी लेकर....' फिल्माया गया था। उसके पश्चात अन्य दार्शनिक स्थलों के सौंदर्य का आनंद लिया गया।
इस ट्रिप के दौरान हमारा गाईड बने हुए थे हमारे ट्रैवेलर्स फोर्स के ड्राइवर सूबेदार मेजर प्रभात सिंह, जो कि पहले सेना अर्थात फौज में जूनियर कमीशंड ऑफिसर थे। वे सूबेदार मेजर पद से रिटायर हो चुके थे और अपने व्यवसाय के रूप में खुद का ट्रैवेलर्स फोर्स चला रहे थे। उनकी ड्राइविंग बहुत अच्छी थी। दूसरी बात वे वहाँ के स्थानीय थे इसलिए सड़क से लेकर क्षेत्र की भी पूरी जानकारी थी, जिसका पूरा फायदा हमें मिला। पूछने पर उन्होंने बताया कि जम्मू-कश्मीर, पंजाब और हिमाचल प्रदेश के चप्पे-चप्पे से वे परिचित हैं। ये सभी इलाके उनके लिए अपना इलाका था, इसलिए हमें किसी भी तरह की असुविधा नहीं हुई। मेरे दो-तीन साथी अग्रज गिरजाशंकर, सोनी आप्पा और भोज कुमार बेशक इस टूर के अनुभव से वंचित रह गए... हमें भी उनकी कमी महसूस हुई। यदि वे लोग भी साथ होते तो निश्चित ही और आनंद आता और एक यादगार बन जाता। लेकिन वे इस टूर पर टिकिट आरक्षित कराने के बाद भी नहीं आ पाए। खैर अगले किसी रचना में उनके साथ के अन्य अनुभवों को शेयर करेंगे।
"गर जिंदा हो तो अक्स ये जिंदगी जी लो,
क्योंकि जिंदगी तो जिंदादिल ही जिया करते हैं, वरना कहने को तो मुरदे भी अकड़ते हैं।"
➖ अशोक सिंह 'अक्स'
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