मैं सड़क …
अरे साहब
कोरोना महामारी के कारण
फुर्सत मिली
आपबीती सुनाने का
मौका मिला।
सदियों से सेवाव्रती
दिन-रात सजग तैनात
सीनें पर सरपट दौड़ती
गाड़ियों का अत्याचार।
हाँ साहब.. 'अत्याचार'
तेजगति से बेतहाशा
चीखती - चिल्लाती
भागती गाड़ियाँ..।
क्षमता से अधिक
बोझ लादे…
आवश्यकता से अधिक
रफ़्तार में भागती गाड़ियाँ...।
मेरे चिथड़े उड़ जाते हैं
दरारे आ जाती हैं
बड़े-बड़े गड्ढे बन जाते हैं
पूरी तरह टूट जाता हूँ...।
पीडब्लूडी वाले आते हैं
मरम्मत कर जाते हैं
मरम्मत क्या..थूकपट्टी.. मतलब
मरहम पट्टी लगा जाते हैं।
शुक्र हो विज्ञान और तकनीकी का
डामरीकरण होने लगा
वरना धूल - मिट्टी से तो
मेरा दम घुटने लगता था।
बारिश में तो
गज़ब का नज़ारा होता
गड्ढे में पानी होता या पानी में गड्ढा
परखना आसान नहीं था।
समय ने करवट लिया
जमाना नई तकनीकी का आया
सीमेंटीकरण कांक्रीट
धूल-धक्कड़ से छुटकारा मिला।
पर साहब स्थिति और बदतर होते
मैंनें इन्हीं आँखों से देखा है
गाड़ियों के साथ-साथ
इंसानों के भी परखच्चे उड़ते देखा है।
सड़क अच्छी होने पर
इंसान बेकाबू हो जाता है
सरपट गाड़ी को दौड़ाता है
जैसे यमराज के पास जाने की जल्दी हो...।
आवश्यकता से अधिक रफ़्तार
समय से पहले पहुंचनें की हड़बड़ी
यमलोक के रास्ते पर ले जाती है
पलक झपकते ही यमराज के दर्शन कराती है।
आये दिन आप भी समाचार में
दुर्घटना की खबरें पढ़ते या सुनते होंगें
किसी का पूरा परिवार उजड़ गया
तो किसी का परिवार हुआ अनाथ ...।
दुर्घटना में जो बचा भी तो
अंधा लूला या लँगड़ा बन जाता है
विकलांग जीवन को बाध्य होकर
जिंदा बोझ बन जाता है।
सच कहूँ तो सारा ठीकरा
सड़क के ही सिर पर फूटता है
कोई इंसान को दोष नहीं देता…
खैर ये त्रासदी झेलने की आदत हो गई है।
दरअसल ये हुनर
मैंनें भी आजकल के नेताओं से सीखा है
खाल मोटी कर लो, आरोप लगने दो…
क्या फर्क पड़ता है…?
फर्क तो बहुत पड़ता है.. साहब
पर दुर्भाग्य यह है कि
संविधान भी तो बूढ़ा हो चला है
न्याय मिलने में पीढ़ियाँ चली जाती हैं….।
➖ प्रा. अशोक सिंह...🖋️