अबला की चाह
चाह नहीं मैं अनपढ़ गँवार रह
अनजान के माथे थोपी जाऊँ
बस चाह नहीं मैं बीज की तरह
जब जहाँ चाहे वहाँ बोयी जाऊँ
चाह नहीं सूत्र बंधन की भी
बंधि दहेज प्रथा की बलि चढ़ी जाऊँ
बस चाह नहीं है इस जग में
अधिकारों से वंचित रह जाऊँ....!
चाह मेरी बस इतनी सी है...
बाला बनकर जनमूं जग में
जीने का हो अधिकार मेरा
दादा-दादी की गुड़िया बनकर
भाई की उँगली को पकड़कर
माँ-बापू का प्यार मैं पाऊँ
घर भर में मैं दुलारी जाऊँ
विपदा में मैं वारी जाऊँ....
बस इतना मुझे अधिकार मिले...।
हर बाला जो जन्में इस जग में
उसे जीने का अधिकार मिले
गोदी से लेकर गद्दी तक
हर जगह उसे सम्मान मिले
बाला वंचित न हो अधिकारों से
ऐसा घर-वर सहज समाज मिले
लक्ष्मी-दुर्गा सी पूजी जाए
ऐसा कुल परिवार खानदान मिले...।
अक्स पूछें हैं दुनिया वालों
क्यों नफरत बाला से करते हो...?
है वो भी तुम्हारे खून का कतरा
फिर भी गर्भपात की सोचे हो
क्या मन में इच्छा नहीं होती है..?
उसकी तोतली बोली सुनने को
अभयदान बाला को कर दो
हर गुड़िया को जीने दो....।
बस अरदास मेरी इतनी सी है
जिस घर में बेटी का कदर न हो
उस घर में कोई बाप बेटी न ब्याहै
जो कोख में मारे हैं बेटी को
भगवन उनका कोख कभी न तारे
उनको ये बात समझ में आने दो
बहू भी बेटी किसी की होती है
माँ-बाप की दुलारी होती है
इस सृष्टि के संचालन में
बेटी का महत्त्वपूर्ण स्थान है
इसीलिए तो भाग्यवान कहलाती है...।
जिसने बेटी को नहीं जन्मा है
वो बहू की महिमा क्या जानें..?
बेटी तो आज बेटे जैसी है
सारे फर्ज अदा करती है
बेटे-बेटी का भेद मिटाओ
समता का अधिकार दिलाओ
बहू को बेटी सा अपनाओ
अबला को जीने का अधिकार दिलाओ
घर - घर में मान - सम्मान दिलाओ...।
➖ अशोक सिंह 'अक्स'
#अक्स