महाप्रसाद के बदले महादान
आप सभी जानते हैं कि कोरोना विषाणु के कारण जनजीवन बहुत बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। व्यापार, कारोबार और रोजगार भी अछूता नहीं रहा। कोरोना के कारण पूरे विश्व में भय व्याप्त है। ऐसे में पड़ने वाले त्योहारों का रंग भी फीका पड़ता गया। राष्ट्रीय त्यौहार स्वतंत्रता दिवस का आयोजन तो किया गया पर हर साल के जैसे उत्साह व उमंग नही था। ईद, बकरीद और रक्षाबंधन भी इसी तरह सादगी से बिना किसी समारोह के आया और चला गया अर्थात बीत गया। इतनी भयावह स्थिति बनी हुई थी कि 'गणेशोत्सव' की भी अनुमति नहीं मिली। सभी आयोजकों ने भी जनकल्याण हेतु इसका समर्थन किया। चारो तरफ अनहोनी का भय व्याप्त था। पर प्रशासन ने शर्तानुसार सादगी से गणेशोत्सव की अनुमति प्रदान की। वो भी सिर्फ डेढ़ से पाँच दिन के लिए। इसके लिए भी हमारे यहाँ से महेश दवे महाराज और रंजीत भाई तीन दिन तक महानगरपालिका व पुलिस स्टेशन का चक्कर काटते रहे तब कहीं जाकर पाँच दिन की अनुमति मिली। दरअसल सार्वजनिक गणेशोत्सव पर पाबंदी लगा दी गई थी। जबकि व्यक्तिगत रूप से बप्पा को घर ला सकते थे। जब जल में रहना है तो मगरमच्छ से बैर नहीं कर सकते अर्थात प्रशासन के निर्देशों का पालन करना ही है। इसी में सबकी भलाई है।
समिति द्वारा आयोजन के संबंध में विचार-विमर्श हेतु आम सभा बुलाई गई थी, जबकि कोरोना काल में ये कार्य गैरकानूनी था फिर भी सामाजिक दूरियाँ बनाए रखकर आमसभा साधारण रुप से की गई। जिसमें सिर्फ और सिर्फ दस सदस्य शामिल हुए। कोरोना का ऐसा दहशत कि तीन सौ सदस्यों में से सिर्फ दस सदस्य उपस्थित हुए। हालांकि समर्थन सभी ने दिया था। जिसके फलस्वरूप मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए बप्पा की आराधना पर सहमति बनी और सादगीपूर्ण तरीके से आयोजन की अनुमति भी थी।
पंडाल बना दिया गया। साधारण सी सजावट भी कर दी गई। नियत तिथि, मुहूर्त व समय पर बप्पा को विराजमान कर दिया गया। पुरोहित महेश दवे महाराज व मुख्य यजमान पकिया भाई ने स्थापना अनुष्ठान संपन्न करके पूजा अर्चना किए। उसके बाद नियमित रूप से सुबह नौ बजे सेवा, दोपहर बारह बजे आरती, शाम की सेवा और रात्रि नौ बजे की आरती संपन्न की जाती थी। वैसे तो आम दिनों में चहल पहल रहता था, भजन-कीर्तन होता था। भक्तों व श्रद्धालुओं का जमावड़ा लगा रहता था पर इस बार लोगबाग प्रसाद व आरती से भी कतराते थे।
हर साल विसर्जन से दो दिन पूर्व अखण्ड रामायण-पाठ का आयोजन किया जाता था और उसके समापन पर श्रीसत्यनारायण जी की पूजा का आयोजन होता था और शाम को महाप्रसाद भंडारा होता था। परंपरा का निर्वहन करते हुए इस वर्ष भी अत्यंत सादगी पूर्ण तरीके से बिना ढोल-ताशे के अखण्ड रामायण-पाठ का आयोजन किया गया व श्रीसत्यनारायण जी की पूजा भी संपन्न हुई। पर हर साल महाप्रसाद भंडारे के लिए जो एक हजार लोगों की व्यवस्था की जाती थी उसमें थोड़ा सा परिवर्तन किया गया। समय की नज़ाकत को देखते हुए भंडारा संभव नहीं था सो निर्णय लिया गया कि जितनी राशि भंडारे के लिए खर्च की जाती है उतनी ही राशि का अन्नदान किया जाए। इस फैसले पर आम सहमति बन गई और जरूरत मन्दों को बुलाकर सौ से अधिक लोंगों को अन्नदान किया गया। जरूरत मन्दों की मदद करके जो तृप्ति व आनंद मिली वैसी तृप्ति भंडारे से भी नहीं मिलती थी। सब बप्पा की कृपा थी। मानव तो सिर्फ साधन मात्र है, बाकी करने व कराने वाले तो स्वयं बप्पा हैं। समिति की सहमति व सहयोग की ही देन थी कि 'महाप्रसाद' के बदले 'महादान' हो गया। इस तरह श्री दीपेश्वर समिति निरंतर अपनें सिद्धांत 'सेवा-त्याग-समर्पण' का पालन करते हुए जनकल्याण का कार्य करती है।
दरअसल महेश दवे महाराज की ही सोच थी। वे भले ही पुरोहित हैं पर उनमें दया व सहानुभूति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई है। उन्होंने ही 'महाप्रसाद' के बदले अन्नदान का 'महादान' करने का सुझाव दिया था। समिति व हम सभी उनके परमार्थ व परोपकारी स्वभाव और कृति के प्रति सदैव कृतज्ञ रहेंगे।
➖ अशोक सिंह 'अक्स'
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