जीवन को सरल, सहज और उदार बनाओ
मनुष्य कहने के लिए तो प्राणियों में सबसे बुद्धिमान और समझदार कहलाता है। पर गहन अध्ययन व चिंतन करने पर पता चलता है कि उसके जैसा नासमझ व लापरवाह दूसरा कोई प्राणी नहीं है। विचारकों, चिंतकों, शिक्षाशास्त्रियों और मनीषियों ने बताया कि सीखने की कोई आयु और अवस्था नहीं होती है। मनुष्य आजीवन सीखता है और सीखने में ही जीवन की सार्थकता है। सच भी है सीखना तो आजीवन चलनेवाली प्रक्रिया है।(Learning is a Life long process) प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य जड़ व चेतन सभी से प्रभावित होता है और कुछ न कुछ सीखता है। उदाहरण के लिए चलते समय जब ठोकर लग जाती है तब उस पत्थर या राह के रोड़े से हमें सीख मिलती है। केले के छिलके पर पैर पड़ने पर चारो खाने चित होनें पर स्वानुभव की सीख अनोखी होती है।छोटे बच्चों की अनोखी आदत होती है, उन्हें जिस कार्य के लिए मना किया जाता है वे उसी ओर कटिबद्ध होते हैं। पर दीया या आग की चिनगारी से जलने पर उसे भी सीख मिल जाती है। प्रकृति की हर वस्तु हमें सीख देती है। हम बड़े बच्चों को सिखाते हैं तो दूसरी तरफ बच्चों से हम बहुत कुछ सीखकर अपने जीवन को उनकी तरह स्वस्थ व खुशहाल बना सकते हैं। पर मनुष्य के अंदर निहित घमंड और स्वार्थ उसे सरल व सहज बनने से रोकता है। उसके जीवन को और अधिक जटिल, कठिन और पेंचीदा बना देता है।
कहा जाता है कि बच्चों का मन कोरे कागज जैसे होता है उस पर जो चाहो वो लिख सकते हो। वैसे ही बच्चों को कच्चा घड़ा बताया जाता है जिसे कोई भी आकार दिया जा सकता है। हम बच्चों को सीख देते हैं, कई बार तो अपने विचारों को भी उन पर थोप देते हैं। दूसरी तरफ बच्चों के जीवन से भी हमें कई सीख मिलती है। उनके बचपन में अपने बचपन को निहारना, उसकी झलक पाकर प्रसन्न होना। बच्चे सबसे पहले हमें पारदर्शी बनना सिखाते हैं। उन्हें रोना आता है तो रोते हैं, गुस्सा आता है तो खूब गुस्सा करते हैं और खुश होने पर खिलखिलाकर हँसते हैं। वे अपने किसी भी संवेदना को दबाते नहीं हैं और न तो छिपाते हैं। आप सब जानते हैं कि बच्चे हर पल ऊर्जा से क्यों भरे रहते हैं..? दरअसल वे फालतू की बातें सोचकर अपनी सकारात्मक ऊर्जा को बर्बाद नहीं करते हैं। वे हमेशा मौजूदा क्षण में जीते हैं, वे विशुद्ध वर्तमान के प्राणी होते हैं। अतीत और भविष्य को लेकर अटकलें नहीं लगाते हैं फालतू व निरर्थक बातों में अपना समय बरबाद नहीं करते हैं। उन्हें जब भूख लगती है तब खाते हैं, नींद आती है तो सोते हैं। यदि हम बच्चों के जीवन से सीख लें और उसे अपने जीवन में अपनायें तो हम जीवन का असली आनन्द ले सकते हैं। गीता में भी तो कहा गया है अर्थात गीता का सार यही है। तुम क्या लेकर आये थे? क्या लेकर जाओगे? जो तुम्हारे पास नहीं है उसकी व्यर्थ चिंता करने से क्या फायदा? सांसारिक वस्तुएँ तो मोहमाया है पर मनुष्य इसी मोहमाया में फँसा हुआ है।
संत गोस्वामी तुलसीदास जी ने बताया है कि 'बड़े भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथनि गावा।'
मनुष्य का जीवन बहुत ही भाग्य से मिलता है, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ बतलाया गया है। अतः जीवन के मोल को समझकर रचनात्मकता में रुचि लेते हैं तो जीवन की नीरसता अपने आप खत्म हो जाती है।
राम कथा 'रामचरितमानस' और 'महाभारत' जैसे ग्रंथों से हमें जीवन की शैली ही तो सिखाई जाती है। गोस्वामी तुलसीदास जी यह भी कहते हैं कि 'परहित सरिस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई।' जीवन की सार्थकता तो दूसरों के भलाई के कार्य में है और दूसरों को कष्ट देने से बढ़कर कोई पाप नहीं है। अतः मनुष्य अर्थात हमारी समझदारी इसी में है कि जीवन के रहस्य को समझते हुए सहजता, सरलता, उदारता और पारदर्शिता के साथ जीवन का आनंद लेना चाहिए।
➖अशोक सिंह 'अक्स'
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