मरकज़ की घटना पर जनाब असग़र वज़ाहत साहेब के विचार
धर्म का मर्म- असग़र वज़ाहत
दिल्ली में निजामुद्दीन इलाके के मरकज़ में जो घटना घटी उसने बहुत से सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे पहली बात यह की बिना प्रशासन को विश्वास में लिए इतने लोगों का जमा करना और वह भी इस माहौल में जमा करना कितना उचित है और कितना नहीं । दूसरी बात यह है कि किसी भी धर्म पर चलने की सबको छूट है लेकिन धर्म के मर्म को समझना बहुत जरूरी है। धर्म वह काम नहीं कर सकता जो डॉक्टर करते हैं। यदि ऐसा होता तो बीमार पड़ने पर आदमी अस्पताल जाने के बजाय मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च जाते ।लेकिन ऐसा नहीं होता। तीसरी बात यह कि धर्म का प्रचार क्यों आवश्यक है? क्या मानने वालों की संख्या के आधार पर धर्म की गुणवत्ता तय होती है? मतलब यह कि यदि किसी धर्म को मानने वाले वालों की संख्या बहुत अधिक है तो वह बहुत अच्छा धर्म माना जाएगा और यदि कम है तो वह अच्छा नहीं माना जाएगा? मेरे विचार से धर्म और अनुयायियों की संख्या से यह साबित नहीं होता कि धर्म कितना बड़ा है।दूसरी बात यह है कि धर्म के केंद्र में ईश्वर है । ईश्वर सर्वज्ञाता,सर्वशक्तिमान है जो चाहे कर सकता है। मान लीजिए अगर ईश्वर चाहे तो संसार में रहने वाले सभी लोग किसी एक धर्म के मानने वाले हो सकते हैं या अगर ईश्वर चाहे तो लोग अपना धर्म स्वतः बदल सकते हैं। मतलब यह कि सर्वशक्तिमान ईश्वर के होते हुए धर्म प्रचार की पद्धति क्यों इतनी अधिक महत्वपूर्ण हो गई है, यह बात समझ में नहीं आती।
कोई भी धर्म मनुष्य समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है। यदि मनुष्य समाज न होगा तो धर्म को कौन स्वीकार करेगा ? इसलिए मानव समाज के महत्व को समझना बहुत आवश्यक है। धर्म की समाज के प्रति एक जिम्मेदारी बनती है जिसे सभी धर्म स्वीकार करते हैं । इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने का मतलब यह है कि धर्म की एक बड़ी जिम्मेदारी से और एक बड़ी भूमिका से इनकार किया जा रहा है। यह इंकार धर्म और समाज दोनों के विरुद्ध है ।