क्यों रहता है
बिना बात व्यथित
और मानता है
खुद को अभिशप्त- बाधित
सुख गर सुख दे पाते
तो तू सही में सुखी होता
पर यहाँ तो
मूक वेदना की धार बहती है
अनवरत निरन्तर तेरे भाल पर
पता नही अंदर से बाहर को
या बाहर से अंदर को
क्षरित देह क्षरित मन
दिनोंदिन बुढाता तन
चल शून्य हो
या खो जा शून्य में
इस दुनिया से
तू रहा निरन्तर ऊब
तभी तेरे चेहरे पर
दिखती है शाश्वत थकन