राम !
औरों को शाप मुक्त करके भी
स्वयम रहे अभिशप्त
कभी दूसरों के क्रोध से संतप्त
तो कभी अपनो से त्रस्त !!
राम !
अकारण नही हुआ वनवास तुम्हे
और न ही पत्नी हरण !!
न होता -
तो कैसे बनते
सहनशीलता के उत्कर्ष
युग पुरुष !
राम !
हर युग में
कोई तो विष पीता है
आक्रोश और अपमान का
शिव होने को !
अकारण भग्न नही हुआ
तुम्हारा जन्मस्थल -
मूर्ख आक्रांताओं से !
न होता
तो कैसे पुनर्जन्म लेते
इक्कीसवीं सदी के
हर भारतीय मन में
रामलला बनकर !!