रोटी
जैसे ही बड़ी सी रोटी बिना किसी चकले बेलन के उसने अपनी मजबूत पानी लगे हाथों के बीच गोल गोल थपकते हुए फैला कर लकड़ी वाले चूल्हे के ऊपर रक्खे उल्टे गोल तवे पर डाली - छुन्न की आवाज हुई और रोटी के सिकने की मीठी मीठी महक झोपड़ी से बाहर आकर मेरे नथुनों से टकराने लगी । रोटी एकदम गोल खासी बड़ी, न ज्यादा मोटी और न ज्यादा पतली थी । तवा बड़ा औऱ भारी था । मिट्टी पुते चूल्हे में आस पास से बटोरी हुई पतली पतली लकड़ियां चटक चटक कर जल रही थी । उन्ही जलती लकड़ियों के बीच से सुलगते अंगारे उसने थोड़ा बाहर को निकाले और फैला दिए । रोटी जब एक तरफ से सिक गयी तो उसने बिना किसी चिमटे के अपनी लंबी खुरदरी उंगलियों से उसे पलट दिया और दूसरी रोटी थपकने लगी । थोड़ी देर बाद तवे वाली रोटी जो अब तक दोनों तरफ से सिक चुकी थी , तवे से नीचे अंगारों पर उतर आयी और अंगारों और जलती हुई लकड़ियों के बीच उसकी सख्त अंगुलियों के पोरों के ज़रिए खड़ी हुई गोल गोल घूमने लगी । इसी बीच जब दूसरी रोटी तवे पर सिक रही थी तो तीसरी उसकी हथेलियों के बीच थपकी जा रही थी । झोपड़ी के अंदर से आती पकती रोटियों की सौंधी और मीठी महक ने मेरे अंदर अचानक सालों बाद ऐसी भूख लगानी शुरू कर दी थी जो कहीं मेरे बचपन से ताल्लुक रखती थी । जब मेरी दादी या मां चूल्हे पर रोटियाँ सेकती थी और मैं वहीं रसोई के गोबर लिपे कच्चे फर्श पर पालथी मार कर उन्हें खाया करता था - दाल से, सब्ज़ी से, लाल मिर्च और लहसुन की चटनी से या सिर्फ़ नमक लाल मिर्च और घी से । रोटी सेकने वाली मुझे पकती रोटियों को लालच से घूरते देख रही थी । मेरे ठीक सामने उसका लुहार पति बड़ी तन्मयता से मेरे लाए घास और पेड़ काटने के पाठलों और तलवारों को धार दे रहा था ।
यह मेरे शहर के एक छोर पर गडिया लोहारों की बस्ती थी । चार पाँच दो पहिय्यों वाले बड़े कलात्मक तरीक़े से बने और मोटी मोटी कीलों से सज्जित छकड़े वहाँ खड़े थे । छकड़ों के आस पास ही उन्होंने तम्बुओं, टाटों और कच्ची पक्की ईंटों के ज़रिए घर जैसे कुछ बना लिए थे । जब से गडिया लोहारों के पुनर्वास पर थोड़ा बहुत सहानुभूति का रवैय्या सरकार का हुआ है, उन्होंने दूध देने वाले पशुओं के सिवा छकड़ों में जुतने वाले अन्य पशु बेच दिए है और इधर उधर भटकना छोड़ कर जहां थे वहीं ठहर गए हैं ।
लुहारन मुझे यूँ सिकती रोटियों को ताकते देख पहले तो अनदेखा करती रही फिर अपने परम्परागत रिवाज की वजह से औपचारिक लहजे में बोली ‘आजा रोटी खाले’ ।
‘अरे नहीं ! मैं तो घर से खाकर चला था मैं तो तेरी रोटी बनाने की तरकीब को देख रहा था तू वाक़ई बहुत कमाल की रोटियाँ बनाती है तेरे हाथ में रोटी बनाने का वाक़ई बड़ा कमाल का हुनर है ।’ मैंने झूठ बोला । मैं सच में एक रोटी खाना चाहता था । मुझे सालों बाद बड़े ज़ोर की भूख सिर्फ़ और सिर्फ़ एक रोटी लाल मिर्च और लहसुन की चटनी के साथ खाने की लग आयी थी । पर मैं अपनी इमेज में क़ैद था । मैं पैंसठ साल का एक पढ़ा लिखा शहरी था । इस शहर में लोग मुझे जानते पहचानते थे । मुझे मालूम था कि अगर मैंने रोटी खा ली तो एक ही दिन में में मेरे परिचितों में यह आम चर्चा होगी कि फ़लाँ फ़लाँ झोपड़ी के बाहर खाट पर बैठा लुहारन की रोटी खा रहा था । ज़रूर कोई चक्कर है ।
‘ले बाब्बू तेरा काम हो गया है धार चेक कर ले’ - लुहारन के पति की बड़ी अजीब और रूखी आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा ।
‘बाब्बू त पीसे ज़्यादा ना लीयो - भला माणस है’ झोपड़ी के अंदर से रोटी सेकती लुहारन ने हांक लगायी ।
मैंने ग़ौर से उसकी तरफ़ देखा । अपनी रोटी की तारीफ़ सुनकर वो बहुत ख़ुशी से शर्माती हुई मुस्करा रही थी ।
‘ रोट्टी बणा रोट्टी फ़ालतू मेरा मात्था ख़राब मत कर ल्या बाब्बू सौ रूपैय्ये काढ़’ उसने बड़ी खुन्नस में मुझसे कहा । पता नहीं क्यों पर उसे रोटी की तारीफ़ और उस पर लुहारन का ख़ुश होना बिलकुल भी पसंद नहीं आया था ।