गिफ्ट में मिले जेवरों ने गांधी और कस्तूरबा को दूर कर दियाबातें देशभक्ति की चल ही रही हैं हर तरफ. इसमें इतिहास का पुट देकर अपनी बात में वजन लाया जाता है. फिर उसमें स्वतंत्रता संग्राम, क्रांतिकारी, महापुरुष. गांधी और दांडी. गांधी की प्रसिद्धि बाउंड्री में नहीं रहती. उनकी बात करो तो या तो उनके कट्टर भक्त निकलेंगे या कट्टर आलोचक. लेकिन हम उनकी बात नहीं करेंगे. हम बतियाते हैं बा के बारे में. बा कहते थे कस्तूरबा गांधी को. उनकी फेम में गांधी हमेशा सेंध मार गए. गांधी को महात्मा बनाने में बा का रोल था. लेकिन फिर भी उनको इतिहास की नजर से हमेशा उपेक्षा मिली. बा के संघर्ष पर गिरिराज किशोर ने किताब लिखी है. राजकमल पब्लिकेशन से प्रकाशित है. इस किताब का नाम है ‘बा’. इतिहास की पूरी ऑथेंटिक जानकारी के साथ लिखा बताया जाता है इसे. इसी किताब से टुकड़ा लेकर हम आपको दे रहे हैं. पढ़िए. बा की यात्रा का एक किस्सा.
घर बुला रहा था
बातें देशभक्ति की चल ही रही हैं हर तरफ. इसमें इतिहास का पुट देकर अपनी बात में वजन लाया जाता है. फिर उसमें स्वतंत्रता संग्राम, क्रांतिकारी, महापुरुष. गांधी और दांडी. गांधी की प्रसिद्धि बाउंड्री में नहीं रहती. उनकी बात करो तो या तो उनके कट्टर भक्त निकलेंगे या कट्टर आलोचक. लेकिन हम उनकी बात नहीं करेंगे. हम बतियाते हैं बा के बारे में. बा कहते थे कस्तूरबा गांधी को. उनकी फेम में गांधी हमेशा सेंध मार गए. गांधी को महात्मा बनाने में बा का रोल था. लेकिन फिर भी उनको इतिहास की नजर से हमेशा उपेक्षा मिली. बा के संघर्ष पर गिरिराज किशोर ने किताब लिखी है. राजकमल पब्लिकेशन से प्रकाशित है. इस किताब का नाम है ‘बा’. इतिहास की पूरी ऑथेंटिक जानकारी के साथ लिखा बताया जाता है इसे. इसी किताब से टुकड़ा लेकर हम आपको दे रहे हैं. पढ़िए. बा की यात्रा का एक किस्सा.
मन उचट रहा था. डरबन में घुसने के पहले से अब तक जितनी दुर्घटनाएं घटी थीं, वे कस्तूरबा के दिमाग में किसी डरावनी तस्वीर की तरह अचानक उभरकर सजीव होने लगती थीं. मन अनायास आशंकित हो उठता था, अब आगे क्या…? प्रश्नचिन्ह की घुंडी में बच्चों से लेकर मोहनदास तक सब सिमट जाते थे. हालांकि मोहनदास देखते-देखते डरबन के सम्मानित व्यक्ति बन गए थे. जबसे कस्तूर डरबन आई थी बच्चों की पढ़ाई को लेकर दिमाग में सवाल ही सवाल थे. मणिलाल नौ साल का होने को आया था. तीनों बड़े बच्चे अपनी उम्र के दूसरे बच्चों से बहुत पीछे थे. यह सोचकर ही कस्तूरबा की धड़कनें बढ़ जाती थीं. ये बच्चे आख़िर क्या करेंगे? मोहनदास के लिए देश से बुलावे आ रहे थे. वे कहते थे अपने देश को भी तो देखो. डरबन ने ऐसा क्या कर दिया कि अपना देश ही भूल गए?
कस्तूरबा का मन भी स्वजनों से मिलने के लिए तड़पता रहता था. डरबन में जन्मे दोनों बच्चों को सम्बन्धियों को दिखाने का मन में बाल सुलभ उतावलापन था. जहां तक बड़े बच्चों को पढ़ाने की बात थी सिवाय मोहनदास के द्वारा पढ़ाने के दूसरा कोई इन्तज़ाम नहीं था. वह उसकी नज़र में अपर्याप्त था. कई बार उसे लगता था विदेश चाहे जितना भी आकर्षित करता हो, या सुख-सुविधा हो, पर वह स्वदेश की तरह हांक नहीं लगाता कि चले आओ, तुम्हारी जगह ख़ाली है, जो कुछ सम्भव है, मैं करूंगा. उस पुकार की कोई कब तक उपेक्षा करे, समय के साथ वह पुकार कितनी भी मद्धिम पड़ जाए पर उसकी भनभनाहट तो कभी ख़त्म नहीं होती. मोहनदास कई बरस विलायत में रहे थे पर सात समंदर पार से आने वाली पुकार इतनी मद्धिम नहीं पड़ी थी कि सुनाई न पड़े. उस गुन गुन धारा में शक्लें भी तैरती रहती थीं. उधर मोहनदास के साथ भी राजकोट और देश रस्साकशी कर रहे थे. कस्तूरबा का निमन्त्रण तो पोरबन्दर और राजकोट दोनों में था. 1901 में मोहनदास ने एकाएक तय किया कि सबको देश जाना है. डरबन जाने नहीं देना चाहता था. दादा अब्दुल्ला, उनके पूर्व मालिक, रोकने में सबसे आगे थे. इस बार मोहनदास निश्चय से टस से मस नहीं हुए. कस्तूरबा की इच्छा शक्ति और देश की पुकार पुरज़ोर थी. ऐवज़ में मोहनदास को उनका यह आग्रह मानना पड़ा कि जब भी डरबन बुलाएगा आना पड़ेगा. कस्तूरबा को आश्वासन देना अच्छा नहीं लगा. उधर बड़े भैया और बाकी घर वाले बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे थे. कस्तूरबा के दिमाग़ में सबसे बड़ी प्राथमिकता थी बच्चों की पढ़ाई की समस्या का समाधान खोजना. लेकिन वह चुप थी, बड़ी मुश्किल से घर लौटने की सायत आई थी. दावतें और विदाई समारोह चालू हो गए थे. उपहार दिए जाने लगे थे. सोने-चांदी और हीरे जवाहरात के ज़ेवरात दिए गए. कस्तूरबा को सोने का हार भेंट किया गया. यही बिन्दु था जहां से पति-पत्नी का सैद्धान्तिक मतभेद चालू हुआ था.
उपहारों को ले जाकर एक मेज़ पर सजा दिया गया था. बा और बच्चों को उन उपहारों को देखकर गर्व का अनुभव हो रहा था. सबसे बड़ी ख़ुशी की बात थी कि उसके पति व बच्चों के पिता का डरबन में कितना सम्मान था कि लोगों ने इतने कीमती उपहार भेंट किए थे. उन्होंने कभी सोचा नहीं था कि इतने कीमती उपहार दिए जाएंगे. लेकिन मोहनदास ख़ामोश थे. वे रात-भर टहलते रहे थे. उनके सामने सब से बड़ा सवाल था कि इतने कीमती ज़ेवरों का वे क्या करेंगे? भेंट के समय इनकार करना भी सम्भव नहीं था. सब मित्र आहत हो जाते. लेकिन उन्हें अपने पास रखना और भी बड़ा अपराध होगा. सेवा के ऐवज़ में प्रतिदान, नैतिकता के विरुद्ध है. वैसे भी उनके, पत्नी और बच्चों के लिए उनका कोई उपयोग नहीं है. सादगी ही सबके जीवन का आदर्श है. रात-भर की माथापच्ची के बाद उन्होंने निर्णय लिया ये सब उपहार कांग्रेस के सिद्धान्तों का सम्मान है. इसलिए दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के कल्याणार्थ नेटाल इंडियन कांग्रेस को ट्रस्ट के माध्यम से दे दिए जाने चाहिए. निर्णय पर पहुंचकर उन्हें राहत मिली. रात ही में ट्रस्ट बनाने के लिए सब कागज़ात तैयार कर लिये. अपने मित्र पारसी रुस्तमजी को ट्रस्ट का अध्यक्ष बनाया और अन्य कुछ विश्वसनीय साथियों को ट्रस्टी बना दिया.
अगले दिन सवेरे, मौक़ा देखकर उन्होंने पहले हरिलाल और मणिलाल को बुलाया. उन्हें बात समझाने में मुश्किल नहीं आई. बच्चे बा से बात करने के लिए राज़ी हो गए.
हरिलाल ने कहा, अगर हमें ज़रूरत होगी तो हम स्वयं प्रबन्ध कर लेंगे, आत्मनिर्भरता सबसे बड़ा सुख है. बात मोहनदास को पसन्द आई. दोनों बच्चे कस्तूरबा के पास गए. वहां लाए. उनके आते ही मोहनदास ने कहा, ‘इन उपहारों को वापिस कर देना चाहिए.‘ कस्तूरबा का मानना था, जब स्वजन प्रेम और सम्मान के साथ उपहार दें तो उसी भाव से स्वीकार करना चाहिए. वह विरोध के स्वर में बोली, ‘आप यह क्या कह रहे हैं, यह अनैतिक है कि प्रेम से दिए गए उपहार वापिस कर दिए जाएं?’
‘क्या यह अनैतिकता नहीं कि समाज सेवा की ऐवज़ में कीमती उपहार स्वीकार करें?’
‘मेरी समझ में नहीं आता कि क्यों न स्वीकार किए जाएं?’
‘तुम इनका क्या करोगी?’
‘मैं अपनी बहुओं के लिए रखूंगी.‘ कस्तूरबा ने तपाक से उत्तर दिया जो मां की दृष्टि से वाजिब था.
‘बच्चे अभी छोटे हैं. इनके विवाह में अभी पर्याप्त समय है.‘ मोहनदास को जवाब देने में देर लगी.
बच्चों ने बीच में जड़ दिया, ‘बा, हमें कुछ नहीं चाहिए.‘
‘तुम लोगों से किसने पूछा?’ बा ने बच्चों को डपट दिया. मोहनदास से बोली, ‘तुम मेरे बच्चों को साधु-संत बना रहे हो, पहले आदमी तो बनें.‘
‘हम अपने बच्चों के लिए ऐसी बहुएं नहीं चुनेंगे जिनके लिए ज़ेवर ही सब कुछ हो.‘ मोहनदास ने अजीब सा जवाब दिया, ‘हम उन्हें हीरे जवाहरात देंगे? तुम मुझसे कहना, मैं हूं ना.‘
क्या बहुओं को भी मेरे जैसी बनाओगे, यह सवाल उसके मुंह से निकलते-निकलते रह गया.
कस्तूरबा का शान्त रहने वाला स्वर तनिक सख़्त हो गया, ‘तुम तो सब कुछ त्यागते जा रहे हो, हीरे कहां से लाओगे?’
‘मैंने ट्रस्ट बनाने के लिए काग़ज़ तैयार कर लिए हैं.‘
‘तुमसे किसने कहा था?’ उसकी आंखों से आंसू ढलक आए. ‘तुम्हें मेरा सोने का हार देने का क्या हक़ था? जैसे तुम्हारे उपहार हैं, वैसे वह मुझे मिला हुआ मेरा उपहार है.‘
मोहनदास ने शान्त बने रहकर कहा, ‘यह उपहार तुम्हें मेरी सेवा के फलस्वरूप दिया गया है. यह वाक्य उसे गर्वोक्ति की तरह ही नहीं लगा बल्कि अन्दर तक चुभता चला गया.
वह जो संयम बनाए हुए थी टूट गया. रोते हुए कहा, ‘तुम्हारी सेवा जग-ज़ाहिर है, मेरी नहीं है. सेवा मैंने की या तुमने, क्या अलग-अलग हैं? मैं तुम्हारे लोगों के लिए रात-दिन खटती हूं, क्या वह सेवा नहीं?’
कस्तूर के तर्क ने एक क्षण के लिए मोहनदास को ला-जवाब कर दिया था.
हो सकता है कस्तूरबा ने ख़ामोशी को स्वीकृति मान लिया हो क्योंकि जब मोहनदास डरबन से चले तो उसके हार सहित सब उपहार बैंक की तिजोरी में जा चुके थे. मोहनदास की विजय नहीं थी, उनकी जि़द की विजय थी. कस्तूरबा ख़ामोश हो गई थी.