शायद आप इनके बारे में ये सब नहीं जानते होंगे जो अब आप इसमें पढ़ेंगे ! भारत तो है ही चमत्कारों और संत ो का देश और संसार में भारत जैसा कोई दूसरा देश है भला . लेकिन पहले तो नाम जान लीजिये:
- सन्त ज्ञान ेश्वर ।
- सन्त नामदेव ।
- सन्त एकनाथ ।
- सन्त तुकाराम ।
- सन्त रैदास ।
1. सन्त ज्ञानेश्वर ।
सन्त ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के उन धार्मिक सन्तों में से एक थे, जिन्होंने पद-दलित जातियों के उद्धार हेतु इस संसार में जीबन धारण किया था । मात्र सोलह वर्ष की आयु में समाधि धारण करने वाले इस धार्मिक सन्त ने अपने चमत्कारों से अज्ञान रूपी अन्धकार में डूबे हुए लोगों को मानवता का सच्चा ज्ञान कराया ।
उनका चमत्कारिक जीवन:
सन्त ज्ञानेश्वर का इस धरती पर जन्म लेना किसी चमत्कार से कम नहीं था । कहा जाता है कि उनकी गाता रुक्मिणी को छोड्कर उनके पिता ने सन्यास धारण कर लिया था । एक दिन रयामी रामानन्द नाम के सन्त रामेश्वर ! की यात्रा पर जाते-जाते आलंदी गांव गे रुके थे । माता रुक्मिणी ने स्वामी रामानन्द के श्रद्धाभाव से चरण छुए थे ।
स्वामी रामानन्द ने उन्हें पुत्रवतीभव का आशीर्वाद दे डाला । रुक्मिणी ने स्वामी से प्रश्न किया कि: उनके पति विट्ठलपंत कुलकर्णी (जो आपे गांव के ब्राह्मण थे, जो आजकल हैदराबाद के मराठवाड़ा पैठण नगर के पास है ।) को भगवद भक्ति और तीर्थयात्रा का शौक है । अत: गृहस्थ जीवन छोड़कर वे संन्यासी हो गये हैं ।
ऐसे में शास्त्रों की दृष्टि में वह धर्म की मर्यादा कैसे भंग कर सकती है ? स्वामीजी की प्रेरणा ने रुक्मिणी को काशी जाने हेतु प्रेरित किया । स्वामीजी ने विट्ठलपंत कुलकर्णी को समझा-बुझाकर रुक्मिणी के साथ आलन्दी ग्राम भेज दिया । गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के उपरान्त विट्ठल दम्पती ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया, जो निवृत्तिनाथ के नाम से विख्यात महाराष्ट्र के सन्तों में प्रसिद्ध हुआ ।
सन् 1275 में श्रावण बदी अष्टमी को एक प्रज्ञावान पुत्र ज्ञानेश्वर का जन्म हुआ, जिसे प्रारम्भ में ज्ञानोबा या ज्ञानदेव कहा जाता था । दो बरस के अन्तराल में क्रमश सोपानदेव और मुक्ताबाई का जन्म हुआ । ये चारों भाई-बहिन महाराष्ट्र के सन्तों में अग्रगण्य हैं ।
बच्चों के जन्म लेने के बाद इनकी तकलीफें तब बढ़ गयीं, जब कुछ कट्टरपंथी पण्डितों ने संन्यासी होकर भी गृहस्थ जीवन जीने की वजह से विडलपंत और उनकी पत्नी रुक्मिणी को धर्मभ्रष्ट और कलंकी कहकर समाज और जा ति से बहिष्कृत कर
दिया । इस संकटकाल में दोनों पति-पत्नी ने अपने बच्चों के साथ अनेक कष्टों उघैर अपमान की पीड़ा का सामना किया । निवृत्ति के उपनयन सरकार हेतु जब कोई ब्राह्मण साथ नहीं आया, तो वे पूरे परिवार को लेकर व्यंबकेश्वर चले आये ।
यहां पर प्रसिद्ध योगी गहनीनाथ से निवृति ने दीक्षा ली । पण्डितों ने ज्ञानेश्वर का उपनयन संस्कार विडलपंत और सक्गिणी को प्रायश्चित स्वरूप देह त्यागने पर स्वीकार किया । आज्ञा मानकर विट्ठलपंत और रुक्मिणी चारों बच्चों को अनाथ, असहाय छोड्कर प्रयाग में जल समाधिस्थ हो गये ।
भिक्षावृत्ति से गुजारा करने वाले उन भाई-बहिनों की कुशाग्र बुद्धि, शास्त्र ज्ञान को देखकर पैठण के ब्राह्मण बहुत दुखी होते थे । उन्होंने यह कहा कि: ”माता-पिता के अपराधों का दण्ड बच्चों को देना अन्यायपूर्ण है ।” अत: 1288 में पैठण के ब्राह्मणों ने चारों भाई-बहिनों की शुद्धि करवाकर समाज में सम्मिलित कर लिया ।
1298 ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी गीता नामक मराठी भाषा में ग्रन्थ लिखा । आठ हजार पृष्ठ के इस ग्रन्थ में गीता का भावार्थ मराठी के ओवी छन्दों में सरल ढंग से लिखा । विसोबा नाम का एक ब्राह्मण, जो हमेशा उन्हें परेशान करने के साथ-साथ लोगों को यह कहकर धमकाता था कि जो इन धर्मभ्रष्ट भाई-बहिनों का साथ देगा, उसे जाति से बहिकृत कर दिया जायेगा ।
एक बार मुक्ताबाई की इच्छा गरम परांठे खाने की हुई । कुम्हारों के पास बर्तन पकाने हेतु लेने जाने पर विसोबा ने कुम्हारों को उन्हें देने से रोक दिया । मुक्ताबाई के इस दुःख से दुखी होकर ज्ञानेश्वर ने अपने प्राणायाम के बल पर पीठ को तवे की तरह तपा लिया और उस पर मुक्ताबाई ने परांठे सेंके ।
विसोबा यह सब देखकर अवाक रह गया । वह प्रायश्चित करते हुए उनके चरणों पर गिर पड़ा । शुद्धि संस्कार होने पर जब वे पैठण पहुंचे, तो वहां पण्डितों की सभा में जाने पर उनकी बहस शुरू हुई । ज्ञानेश्वर ने बहस में कहा “परमेश्वर सभी प्राणियों में निवास करते हैं ।” तो इस भैंसे में भी होंगे, ऐसा कहकर पण्डितों ने ताना मारा ।
ज्ञानदेव ने कहा: ”इसमें झूठ क्या है ?” एक पण्डित ने भैंसे की पीठ पर कोड़े बरसाते हुए कहा: “तुम्हारी पीठ पर इसके निशान दिखाओ ?” अगले ही क्षण ज्ञानदेव की पीठ पर वही निशान उघैर घाव के साथ बहता हुआ खून नजर आने लगा । यहां तक कि ज्ञानदेव ने भैंस के मुख से वैदिक मन्त्रों का उच्चारण भी करवाया था । अब तो पण्डितों को उनके ईश्वरीय अंश का बोध होने लगा था ।
एक स्त्री के पति को जीवित करने का चमत्कार भी ज्ञानदेव ने कर दिखाया था । उनके प्रमुख चमत्कारों में चांगदेव नामक सिद्ध सन्त-जो गोदावरी नदी के किनारे रहते थे-से सम्बन्धित चमत्कार उल् लेख नीय है । एक बार चांगदेव ने ज्ञानदेव को छोटा समझकर कोई सम्बोधन न देते हुए कोरा कागज उनके पास भेजा ।
ज्ञानदेव ने अपनी उल्तर्दृष्टि से उसके भावों को समझकर उसका उत्तर लिख भेजा । चांगदेव का उाभिमान ऐसा टूटा कि वे अपने शिष्यों के साथ ज्ञानेश्वर से मिलने तो आये, किन्तु अपनी सिद्धि का घमण्ड दिखाते हुए शेर पर सवार होकर काले नाग के चाबुक से हांकते हुए वहां पहुंचे ।
उस समय ज्ञानेश्वर टूटी र्ख्य दीवार पर अपने भाई-बहिनों के साथ बैठकर धूप का आनन्द ले रहे थे । चांगदेव की अगवानी में वे भाई-बहिनों सहित दीवार चलाते हुए उनके पास पहुंचे । बस फिर क्या था, उस सोलह वर्ष के ज्ञानदेव की शरण में वे उघ गये ।
15 वर्ष की अवस्था गे ज्ञानदेव ने 9 हजार पृष्ठों की ज्ञानेश्वरी गीता लिखी, जिसमें मराठी के 700 ओवी, छन्द, 46 भाषाओं सहित शामिल हैं । जनसाधारण की भाषा में लिखी गयी इस गीता में ज्ञान, कर्म और शक्ति योग का अनूठा समन्वय है ।
जनभाषा मराठी में होने के कारण “ज्ञानेश्वरी गीता” जब जनसामान्य द्वारा अत्यन्त लोकप्रिय हो गयी और घर-घर पड़ी जाने लगी, तो कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने इसका पुरजोर विरोध किया । ज्ञानेश्वरी गीता व उनके उपदेशों में मानवतावादी मूल्यों की प्रधानता है ।
ईश्वर सभी जातियों का है, जो पिछड़े और निम्न जातियों के साथ समस्त प्राणियों में निवास करता है, ऐसा उनका विचार था । अपने भाई-बहिनों के साथ पंढरपुर तथा अन्य तीर्थो की यात्रा करते हुए वे आलन्दी लौट उमये, तब उन्होंने अपने गुरा निवृतिनाथ का आशीर्वाद लेते हुए 21 वर्ष की आयु में समाधि ले ली ।
उपसंहार:
ज्ञान की धारा बहाने वाले इस सच ज्ञानेश्वर ने समस्त मानव-जाति को ईर्ष्या, द्वेष व प्रतिशोध से दूर रहने का उपदेश देते हुए सच्चे मानव धर्म की शिक्षा दी । ज्ञानदेव वारकरी सम्प्रदाय के संस्थापक माने जाते हैं । इस सम्प्रदाय के अनुयायी आषाढ़ी कार्तिकी एकादशी के दिन समाधिस्थल पर मेले में एकत्र होकर अपना श्रद्धाभाव व्यक्त करते हैं ।
2. सन्त नामदेव
महाराष्ट्र की भूमि साधु-सन्तों की भूमि रही है । इस भूमि पर सन्त ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम, रामदास, गोरा कुमार आदि ने जन्म लेकर इस भूमि को पावन बनाया ।
मराठी भाषा में श्रेष्ठ धार्मिक ग्रन्थों का प्रणयन करके उन्होंने जनसाधारण को भक्ति का मार्ग दिखाया । इन सभी सन्तों में सन्त नामदेव ऐसे थे, जिन्होंने मराठी भाषा के साथ-साथ मुखबानी हिन्दी में शी अभंगों की रचना की और लोगों को सच्ची ईश्वर-भक्ति की प्रेरणा दी ।
उनके चमत्कारिक कार्य:
नामदेवजी का जन्म एक दर्जी परिवार में हुआ था । उनके पिता दामाशेटी और माता गोणाई देवी धार्मिक सरकार सम्पन्न परिवारवाले व्यक्ति थे । ऐसे ही परिवार में सन् 1270 की कार्तिक सुदी शुक्ल प्रतिपदा के दिन नामदेव का जना हुआ था । दामाजी विट्ठल के परमभक्त थे ।
विट्ठल मन्दिर में वे बालक नामदेव को भी साथ ले जाया करते थे । एक बार दामासेटी किसी काम से दूसरे गांव जाते समय बालक नामदेव को मन्दिर में जाकर नैवेद्य चढ़ाने का भार सौंप गये । बालक नामदेव नैबेद्य लेकर भगवान् के सामने घण्टों बैठे रहे ।
काफी समय निकल जाने पर भगवान् नैवेद्य ग्रहण करते न देखकर रोते हुए बोले- “आप तो मेरे पिता के हाथ का नैवेद्य स्वीकार कर लेते हो, मेरे हाथ का क्यों नहीं ? आप जब तक नैवेद्य ग्रहण नहीं करोगे, तब तक मैं न ही खाऊँगा, न पीऊंगा ।” वे एक पैरों पर आंखें गूदे खड़े रहे । उनकी अविचल भक्ति देखकर भगवान् मूर्ति से बाहर आये और उन्होंने बडे ही प्रेमपूर्वक नैवेद्य ग्रहण किया ।
बालक नामदेव खुशी-खुशी नैवेद्य की खाली थाली लिये हुए घर पहुंचे । घर जाकर उन्होंने पूरी घटना विस्तारपूर्वक अपनी माता को बतायी । माता को बड़ा आश्चर्य हुआ, विश्वास नहीं । रात को जब दामाजी घर लौटे, तो गोणाई ने सारी घटना अपने पति को सुनायी । उन्हें भी आश्चर्य हुआ, विश्वास नहीं ।
दूसरे दिन इस बात की सचाई का पता लगाने के लिए वे बालक नामदेव के साथ विट्ठाल मन्दिर पहुंचे । नैवेद्य भगवान के सामने रखकर बालक नामदेव ने उसे खाने हेतु गुहार लगायी । उनके पिता ने खिड़की से छिपकर देखा कि विट्ठल तो सचमुच ही नैवेद्य खा रहे हैं । उसी समय उन्हें ज्ञात हो गया कि यह तो विट्ठल का परमभक्त है ।
एक ऐसी ही घटना हुई कि उनकी रसोई में एक कुत्ता घुस आया और रोटियां मुंह में दबाकर भागने लगा । बालक नागदेव उसके पीछे-पीछे घी का बर्तन लेकर दौड़े और कुत्ते को पकड़कर उसे घी चुपड़ी रोटी खिलायी । कहा जाता है कि कुत्ते के रूप में साक्षात् विट्ठल भगवान थे ।
नामदेव का विवाह 11 वर्ष की अवस्थ में राजाई नामक कन्या से हुआ था, जिनसे उनको चार बेटे-नारायण, विठोबा, महादेव, गोविन्द तथा बेटी निंबाई हुई । उनके घर जनाबाई नाम की एवं नौकरानी काम करती थी । बाद में वह भी एक महान् सन्त बनी । गृहस्थ बनने के कद भी उनका ध्यान भजन- कीर्तन में आठों पहर रमा रहता ।
एक बार नामदेवजी के साले साहब उनके घर आये हुए थे । नामदेवजी की पत्नी राजाई ने अपने भाई के लिए भोजन जुटाने के लिए उनसे यह भी कहा कि: “घर में अन्न का दना तक नहीं है । भाई को नहीं खिलाऊंगी, तो मायके में बदनामी होगी ।” नामदेव बोले: “आज एकादशी है । कल भोजन करायेंगै ।” ऐसा कहकर मन्दिर चले गये ।
उनके जाते ही इधर बोरियों में अनाज घर पहुंचा था । उनकी पत्नी राजाई ने सोचा यह तो नामदेवजी ने भेजा होगा । उसने भाई को खुशी-खुशी भोजन कराया । घर आकर नामदेवजी स्वयं चकित थे । उन्हें गालूम हो गथा कि यह तो भगवान विट्ठल की कृपा थी ।
कहा जाता है कि रुक्मणी नामक एक महिला ने राजाई की दुर्दशा देखकर पारस फत्थर उसे देते हुए कहा कि: “उसके घर में इसकी वजह से कोई कमी नहीं रहेगी । इसे लोहे से छुआते ही वह सोने में बदल जायेगा ।“ उसने घर लाकर ऐसा ही किया । उसने कुछ अनाज घर ले आयी । नामदेवजी ने उस पत्थर के बारे में जैसे ही जाना, उसे चन्द्रभागा नदी में फेंक दिया ।
भोले-भगत नामदेव ने रुक्मिणी और उसेके पति भागवत द्वारा उस पारस को मांगे जाने पर छलांग लगाकर बहुत से पत्थर हाथों में रखे और कहने लगे: “यह लो ! तुम्हारे पारस पत्थर ।” लोगों ने सोचा नामतेव मजाक कर रहे हैं । सबने लोहे से उन पत्थरों का स्पर्श किया, तो वे सभी पारस थे । नामदेव ने उन्हें पुन: नदी में फेंक दिया ।
इस तरह उनके जीवन से कई ऐसे चमत्कार जुड़े हुए हैं । नामदेव आठों पहर भक्ति में रमण करते हुए एक बार सन्त ज्ञानेश्वरजी के घर उगलन्दी पहुंचे । उनके गन में जो अहंकार भाव था, उसके कारण उन्होंने ज्ञानेश्वरजी के चरण स्पर्श नहीं किये ।
ज्ञानेश्वरजी यह सब समझकर मन-ही-मन मुसकरा दिये, किन्तु बहिन मुक्ताबाई और भाई निवृत्तिनाथ ने इस घमण्ड को उनसे दूर करने के लिए सन्त गोरा कुम्हार को अपने साथ ले लिया । गोरा कुम्हार ने उन्हे कच्चा मटका कहकर उनकी सहनशक्ति व अहंकार की परीक्षा ली, जिसमें वे असफल रहे । भूल समझ में आते ही नागदेव ज्ञानेश्वरजी के चरणों पर नतमस्तक हो गये ।
एक बार सच विसोबा को अपना गुरा बनाने के खयाल से वे शिव मन्दिर पहुंचे । वहां विसोबा को भगवान् शंकर की पिण्डी पर पैर रखकर सोता हुआ देखकर उन्हें काफी भला-बुरा कहा । सन्त विसोबा ने अपने पैर पिण्डी से हटाकर रखने को कहा । ऐसा करते ही उन्हें पैर रखे हर स्थान पर पिण्डी ही पिण्डी दिखाई देने लगी ।
परमेश्वर का सभी स्थानों में दर्शन कराने पर उन्होंने विसोबा को अपना गुरा बना लिया । एक बार ब्राह्मणों ने उन्हें दर्जी कहकर मन्दिर में पूजा करने से वंचित कर दिया और उन्हें मन्दिर के पिछवाड़े भगा दिया । बस, फिर क्या था, मन्दिर तो घूरकर नामदेवजी के सामने आ गया ।
उपसंहार:
नामदेवजी ने अपने जीवनकाल में दो हजार पांच सौ अभग लिखे । जीवन-यार भगवद् भक्ति का प्रचार-प्रसार करते हुए इस परमभक्त ने सन् 1350 को 80 वर्ष की उम्र में समाधि ले ली । उनके भक्त पंजाब के गुरुदासपुर जिले में मिलते हैं, जहां नामदेवजी के नाम से एक गुरुद्वारा शी बना है । इस सम्प्रदाय के कई लोग आज भी उनके अनुयायी हैं ।
3. सन्त एकनाथ
सन्तों की भूमि महाराष्ट्र में महात्मा एकनाथजी का नाग भी अत्यन्त श्रद्धा से लिया जाता है । ब्राहमण कुल में जन्मे इस सन्त ने कभी भी जाति के नाम पर किसी से भेदभाव नहीं किया, बल्कि उस समय की जातिवादी कट्टर भावना को लोगों के मन से निकालने का यथासम्भव प्रयास किया । एक अर्थो में वे सन्त के साथ-साथ समाजसुधारक भी थे ।
उनका चमत्कारिक जीवन:
ईश्वर के परमभक्त एकनाथजी के जीवन से अनेक चमत्कारिक घटनाएं जुड़ी हैं । कहा जाता है कि वे जिस रास्ते से होकर गोदावरी स्नान को जाते थे, उसी रास्ते एक दुष्ट मौलवी उन्हें नहाकर लौटते समय उन पर कुल्ला करके अपवित्र कर देता था । एकनाथ कुछ न कहते, चुपचाप पुन: स्नान कर लौट जाते ।
एक दिन तो उस दुष्ट ने उन पर 108 बार कुल्ले किये । आखिर जब उसका मुंह थक गया, तो वह एकनाथजी के पैरों पर गिरकर बोला: ”मैं आपका अपराधी हूं ।” एकनाथ बोले: ”तुम्हारी वजह से मैंने एक ही दिन में 108 बार गोदावरी स्नान का पुण्य कमाया ।”
कुछ दुष्ट ब्राह्मणों ने उनकी सज्जनता की परीक्षा लेने के लिए एक बार एक व्यक्ति को उन्हें क्रोधित करने हेतु घर भेजा । एकनाथजी भगवद् भक्ति में रमे हुए थे । वह व्यक्ति उनकी पीठ पर चढ़ बैठा । एकनाथ हंसकर बोले: ”तुम्हारी इतनी उतत्मीयता देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ ।” अब उस व्यक्ति ने उन्हें क्रोध दिलाने के लिए गिरिजाबाई की पीठ की सवारी भी कर डाली ।
वे गिरिजाबाई से बोले: “इस बालक को ठीक से पकड़े रहना, अन्यथा गिरकर उसे चोट लग जायेगी ।” गिरिजाबाई बोली: ”मुझे ऐसे बच्चों को संभालने का अच्छा अभ्यास है ।” सन्तों को भला क्रोध कैसे आता । एक बार हरिद्वार से रामेश्वर में गंगाजल चढ़ाने हेतु वे तीर्थयात्रा से लौट रहे थे ।
रास्ते में एक मरणासन्न प्यासे गधे को देखकर घड़े का सारा जल उसे पिला दिया । उनके साथियों ने इसका काफी विरोध किया । बाद में सभी को उसी गधे में रामेश्वरम् भगवान् के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ । अछूतों के प्रति उनके मन में ऐसा प्रेमभाव था कि उनके पिता के वार्षिक श्राद्ध पर घर में बन रहे पकवानों की गन्ध पाकर कुछ अछूतों द्वारा भोजन की इच्छा प्रकट करते ही उन्हें सन्तुष्ट होने तक अपने घर बिठाकर भोजन कराया ।
ब्राह्मणों ने उनके इस कार्य की काफी निन्दा की । ब्राह्मणों ने भोजन करने से इनकार कर दिया । एकनाथजी ने भक्तिभाव से पितरों का आवाहन किया । पितृगण सशरीर वहां उपस्थित हुए । यह देखकर ब्राह्मणों की आंखें फटी की फटी रह गयी थीं । एक वेश्या के निमन्त्रण पर उसके घर जाकर एकनाथजी ने उसके हृदय में ईश्वर-भक्ति की ऐसी लगन लगायी कि उसने अपने जीवन को धन्य कर लिया ।
उपसंहार:
सन्त एकनाथ का विचार था कि केवल पूजा-पाठ से व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता । व्यक्ति के सत्कर्म और उसकी शुद्ध आत्मा ही उसे महान् बनाती है । जो लोग जाति के नाम पर भेदभाव करते हैं, वे ढोंगी, पाखण्डी और अल्पज्ञानी हैं । पतितों और पीड़ितों की सेवा के साथ-साथ ईश्वर-भक्ति में रमे रहकर सन्त एकनाथजी ने सन् 1656 को गोदावरी नदी के तट पर महासमाधि लगा ली ।
4. सन्त तुकाराम
राज तुकाराम महाराष्ट्र के उन सन्तों गे से एक थे, जिन्होने दुष्टों के अत्याचार कको भी हंसकर सहन किया । ईर्ष्या, द्वेष, दम्भ, वैर-भाव से दूर इस भोले-भाले सन्त ने जनसाधारण को याक्ति तथा अपनी अभंगपाणी से सीधा-सरल मार्ग सुझाया । भक्तिमार्ग को कठिन बताने वाले उच्चवर्गीय लोगों ने इनके अस्तित्व को मिटाने हेतु यथासम्भव प्रयास किये । पर जिस पर ईश्वर की कृपादृष्टि हो, उसका संसार भला क्या बिगाड़ पायेगा ?
उनका चमत्कारिक जीवन:
शूद्र तुकाराम ने जब ईश्वर के भजन- कीर्तन के साथ-साथ मराठी मे अभंगों की रचना की, तो उनके अभंगों की पोथी को देखकर सवर्ण ब्राह्मणों ने उनकी यह कहकर निन्दा की कि तुम्हें निम्न जाति का होने के कारण यह सब अधिकार नहीं है । यहां तक कि रामेश्वर भट्ट नामक एक ब्राहाण ने उनकी सभी पोथियों को इन्द्रायणी नदी में बहा आने के लिए कहा ।
साधु प्रवृत्ति के तुकाराम ने सभी पोथियां नदी में प्रवाहित कर दीं । कुछ देर बाद जब उन्हें ऐस करने पर पश्चाताप हुआ, तो वे वहीं विट्ठल मन्दिर के सामने बैठकर रोने लगे । तेरह दिनों तक शूखे-प्यासे वहीं पड़े रहे । चौदहवें दिन स्वयं विट्ठल भगवान ने प्रकट होकर उनसे कहा: ”तुम्हारी पोथियां नदी के बाहर पड़ी थी, संभालो अपनी पोथियां ।”
सचमुच ऐसा ही हुआ था । इतना ही नहीं, कुछ दुष्ट, ईर्ष्यालु ब्रहमणों ने एक दुश्चरित्र महिला को उन्हें बदनाम करने हेतु अकेले पाकर भेजा । तुकाराम के हृदय की पवित्रता देखकर वह स्त्री अपने कर्म पर लज्जित होकर पछतायी । एक बार महाराज शिवाजी तुकाराम के दर्शन करने के लिए उनकी कीर्तन सभा में आये हुए थे ।
कुछ मुसलमान सैनिक बादशाह की आज्ञा से शिवाजी को धर-पकड़ने वहां पहुंचे । तुकारामजी ने अपनी चमत्कारिक शक्ति से वहां बैठे सभी लोगों को शिवाजी का रूप दे दिया । मुसलमान सैनिक अपना सिर पीटते हुए वहा से खाली हाथ ही लौट गये । 1630-31 में पड़े भयंकर अकाल व महामारी से गांव की रक्षा भी की थी ।
उपसंहार:
सन्त तुकाराम का सम्पूर्ण जीवन यह दर्शाता है कि सन्तों के साथ दुष्ट भी बसते हैं, किन्तु उनकी दुष्टता संतो के सोमने एक नहीं चलती । पश्चाताप ही उनके जीवन का उद्देश्य रह जाता है । ईश्वर-साधना में लीन रहकर सन्त सांसारिक लोगों का कल्याण करने के लिए ही इस धरती पर जन्म लेते है । तुकारामजी सन् 1649 में विट्ठल भगवान् का कीर्तन करते-करते मन्दिर से अदृश्य हो गये । ऐसा लोगों का विश्वास है ।
5. सन्त रैदास
इस संसार में सन्त एवं महात्माओं ने उच्चे जाति में न जन्म लेकर निम्न कुल में जन्म लेकर यह उदाहरण प्रस्तुत किया कि जाति या धर्म से बड़ा धर्म मानवता है । सच्ची श्रद्धा और भक्ति से कि गयीं मानव सेवा और ईश्वर सेवा ही जीवन की सार्थकता है । ईश्वर किसी जाति विशेष का नहीं, वह तो अछूतों और दलितों के हृदय में भी वास करता है ।
उनके चमत्कार:
सन्त रैदास का जन्म एक चर्मकार परिवार में 1456 को वाराणसी में हुआ था । उनके पिता रघुजी और माता विनया अत्यन्त ही दयालु एवं धार्मिक विचारों वाले थे । सन्त रैदास (रविदास) का जन्म ऐसे ही परिवार में हुआ था । बाल्यावस्था से ही रैदास का मन ईश्वर-भक्ति की ओर उम्मुख हो चला था ।
विवाह करने की इच्छा न होते हुए भी माता-पिता का आदेश मानते हुए उन्होंने लोणा नाम की कन्या से विवाह किया, किन्तु अधिक दिनों तक वे गृहस्थी के बन्धन में बंधकर नहीं रह सके । रैदास का जीवन निम्न कुल में जन्म लेने के कारण अत्यन्त संघर्षो में बीता । फिर भी उन्होंने अपनी सत्यनिष्ठा, ईश्वर-भक्ति को कभी नहीं छोड़ा ।
जूतियां-चप्पलें बनाते-बनाते ईश्वर-साधना करना ही उनके जीवन का ध्येय था । जब कोई सन्त-महात्मा उनके द्वार पर उमते, वे बिना दाम लिये उनके लिए जूतियां तथा चप्पलें बना दिया करते थे । कहा जाता है कि उन्होंने अपनी कुटिया के पास भगवान् की एक मूर्ति रखकर उस पर छप्पर डलवाया था ।
इससे प्रसन्न होकर भगवान् ने साधु -का रूप धारण करके उनकी दरिद्रता को दूर करने हेतु पारस पत्थर प्रदान किया । रैदासजी ने उस पत्थर को घर के छप्पर पर रख दिया, ताकि उनके मन गे धन के प्रति मोह न जागे । चप्पल-जूते सीते हुए भगवान की भक्ति करते हुए रैदास को देखकर एक ब्राह्मण ने उनकी ईश्वर भक्ति पर ताना मारा कि:
”मेरी तरह गंगा जाकर स्नान-ध्यान करके साधना करोगे, तो ही ईश्वर मिलेगा ।” रैदास ने कहा: ”मुझे गंगा तक जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । मन चंगा तो कठौती में गंगा ।” ब्राह्मण उपहास कर ही रहा था कि चमड़ा धोने वाली कठौती से गंगाजी का हाथ सोने और मोतियों से जडे कंगन के साथ प्रकट हुआ ।
रैदासजी ने वह कंगन ब्राह्मण के मांगने पर दान में दे दिया । कंगन पाकर ब्राह्मण ने यह झूठा प्रचार किया कि गंगा गैया ने उनकी भक्ति से प्रकट होकर यह कंगन उन्हें दिया है । यह कंगन रानी तक जा पहुंचा, तो उसने वैसे ही दूसरे कंगन की मांग ब्राह्मण से कर डाली । ब्राह्मण रोता-गिड़गिड़ाता हुआ रैदास के पास जा पहुंचा ।
रैदासजी ने गंगाजी से प्रार्थना कर दूसरा कगन ब्राह्मण के लिए मांगा । उसे लेकर ब्राह्मण रानी के पास गया, उन्हें कंगन देकर किसी तरह अपनी आफत में फंसी जान बचायी । एक बार की बात है । सन्त रैदास ने कीर्तन-भजन के पश्चात् प्रसाद अपने हाथों से वितरित किया । वहां खड़े सेठजी ने रैदास के हाथों प्रसाद तो ले लिया, पर उसे धृणावश बाहर फेंक दिया ।
सौभाग्य से वह एक कुष्ठ रोगी पर जा गिरा । प्रसाद के चमत्कार का परिणाम यह हुआ कि कुष्ठ रोगी पूरी तरह स्वस्थ हो गया और सेठजी बीमार हो गये । सन्त की शरण में जाने पर उनकी आत्महीनता और बीमारी ठीक हो सकी । कहा जाता है कि 120 वर्ष तक का जीवन जीकर रैदासजी ने अपने अन्तिम समय में शरीर का चर्ग उतारकर अपना यज्ञोपवीत दिखाया, ताकि लोगों के मन से जातीय भेदभाव दूर हो सके ।
उपसंहार:
रैदासजी सच्चे ईश्वर भक्त थे । शक्ति के बिना वे अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करते थे । उनके चमत्कारिक जीवन से हम सभी मनुष्यों को यह प्रेरणा मिलती है कि ईश्वर सच्चे हृदय में ही बसता है । रैदासजी के प्रमुख शिष्यों में कबीर, धन्ना, पीपा तथा मीराबाई भी शामिल थीं । आज भी भारत के कोने-कोने में उनके अनुयायी लाखों की संख्या में मिलते हैं । रैदासजी रविदासजी के नाम से भी जाने जाते हैं ।