2 जून 2015
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कहते हैं ये जीवन अनेकों रंगों से भरा है संसार में सभी की इच्छा होती है इन रंगों को अपने में समेट लेने की मेरी भी रही और मैंने बचपन से आज तक अपने जीवन में अनेकों रंगों का आवागमन देखा और उन्हें महसूस भी किया .सुख दुःख से भरे ये रंग मेरे जीवन में हमेशा ही बहुत महत्वपूर्ण रहे .एक अधिवक्ता बनी और केवल इसलिए कि अन्याय का सामना करूँ और दूसरों की भी मदद करूँ .आज समाज में एक बहस छिड़ी है नारी सशक्तिकरण की और मैं एक नारी हूँ और जानती हूँ कि नारी ने बहुत कुछ सहा है और वो सह भी सकती है क्योंकि उसे भगवान ने बनाया ही सहनशीलता की मूर्ति है किन्तु ऐसा नहीं है कि केवल नारी ही सहनशील होती है मैं जानती हूँ कि बहुत से पुरुष भी सहनशील होते हैं और वे भी बहुत से नारी अत्याचार सहते हैं इसलिए मैं न नारीवादी हूँ और न पुरुषवादी क्योंकि मैंने देखा है कि जहाँ जिसका दांव लग जाता है वह दूसरे को दबा डालता है.D
sateek likha hai aapne .badhai
3 जून 2015
शालिनी जी, बिल्कुल ठीक कहा आपने। हालात वो हो गए हैं कि अब आदमी सच को सच कहने से भी डरता है। अपना हक़ भी मांगने से डरता है। कोई मारा जाए तो मारा जाए, बस हम बच गए ये ठीक रहा। आपको एक लिंक भेज रहा हूँ जिससे ये स्पष्ट होता है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय किया, लागू होने के लिए समय सीमा दी, लेकिन फिर हुआ क्या। आज तक पूरे देश में कार्यरत कितने ही काबिल लोगों को उनका हक़ नहीं मिला। अच्छे दिन शायद सपने में भी नहीं आएंगे। indiankanoon.org/doc/46015812/ ये मामला देखिएगा, और समझिएगा कि कमी कहाँ है। और यही क्या, कितने ही ऐसे मामले हैं जिनमे न्यायालय ने तो उचित न्याय किया लेकिन क्या वो लागू हो सके। अब इस मंच पर और क्या कहें। कितने ही जीवन जी उठते यदि उनकी बात सुनी गई होती, न्यायालय के फैसलों को समय रहते अमल में लाया गया होता... लेकिन सवाल फिर वही कि चलो हम बच गए। मैं आभारी हूँ कि कल्पना की दुनिया से ऊपर कोई सच भी लिखता है।
3 जून 2015