बरेली में जन्मे पंडित राधेश्याम कथावाचक ने महज 17-18 वर्ष की आयु में लोकनाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में राधेश्याम रामायण की रचना की। उनके जीवनकाल में ही इस रामायण की हिंदी और उर्दू में करीब डेढ़ करोड़ प्रतियां बिकीं।
यूं तो श्रीराम सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं लेकिन रुहेलखंड की बात अलग है। यहां के कण-कण में राधेश्याम के राम बसते हैं। इसी माटी के लाल बरेली में जन्मे पंडित राधेश्याम कथावाचक ने महज 17-18 वर्ष की आयु में लोकनाट्य शैली को आधार बनाकर खड़ी बोली में राधेश्याम रामायण की रचना कर डाली। उनके जीवनकाल में ही इस रामायण की हिंदी और उर्दू में करीब डेढ़ करोड़ प्रतियां बिकीं। यहां की रामलीलाओं ने उनकी इस कृति को आत्मसात कर जन-जन तक पहुंचाया।
देश-विदेश के लोग राम को चाहे जिस चश्मे से देखते हों पर रुहेलखंड के लोग राधेश्याम के राम को ही जानते व पूजते हैं। पंडित राधेश्याम कथावाचक ने अपने जीवनकाल में वीर अभिमन्यु, श्रीकृष्ण अवतार, रुक्मिणी मंगल जैसे महाभारत से जुड़े तमाम प्रसंगों पर नाटक व किताबें लिखीं।
रुहेलखंड की धरती का महाभारत काल से सीधा जुड़ाव भी है। इसके बाद भी कथावाचक की ये कृतियां उतनी प्रसिद्धि नहीं पा सकीं। रामायण काल से कोई सीधा जुड़ाव नहीं होने के बाद भी यहां के लोगों को राधेश्याम के राम खूब भाए। रामलीला मंचन के दौरान किरदारों के संवाद लोगों की जुबान पर छा गए।
संस्करण दर संस्करण समृद्ध हुई भाषा
पंडित जी और उनके रामायण की प्रसिद्धि सरहदों की हद पार कर विदेश तक पहुंची। अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना की एसोसिएट प्रोफेसर पॉमेला यहां शोध करने आ पहुंचीं। इसके लिए उन्होंने हिंदी सीखी। अपने शोध में उन्होंने पाया कि राधेश्याम रामायण के शुरुआती संस्करणों में उर्दू के शब्दों की अधिकता रही। बाद में संस्करण दर संस्करण पंडित जी ने इसकी भाषा को परिमार्जित और परिष्कृत किया। जैसे-जैसे नए संस्करण बाजार में आते रहे, उर्दू की जगह हिंदी के शब्द स्थान पाते रहे। 1950-60 में जो संस्करण प्रकाशित हुआ, उसमें शुद्ध हिंदी के शब्दों का प्रयोग किया गया है।
Ram Mandir: 'गुल्लक' लेकर डीएम के पास पहुंची बिटिया, राम मंदिर के लिए पॉकेट मनी अयोध्या भेजने को कहा
नेपाल नरेश ने दी थी कथा वाचस्पति की उपाधि
पंडित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवंबर 1890 को बरेली शहर के बिहारीपुर मोहल्ले में हुआ था। वह समाज की पसंद-नापसंद से वाकिफ थे। इसीलिए उनकी रचनाएं काफी लोकप्रिय हुईं। 1922 में लाहौर में आयोजित विश्व धर्म सम्मेलन का शुभारंभ उनके लिखे मंगलाचरण से ही हुआ था। 1937 में नेपाल नरेश ने उनको कथा वाचस्पति की उपाधि दी थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति भी उनकी कथा से प्रभावित रहे। अपने जीवनकाल में उन्होंने 150 से अधिक पुस्तकें लिखीं और इतनी ही पुस्तकों का संपादन भी किया।
बीएचयू के लिए दान कर दी थी सालभर की कमाई
महामना मदनमोहन मालवीय जी राधेश्याम कथावाचक के गुरु रहे। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के निर्माण के लिए धन एकत्र करने के क्रम में वह बरेली आए तो पंडित राधेश्याम ने अपनी सालभर की कमाई दान कर मिसाल पेश की थी।
पंडित जी की रचनाएं आज भी प्रासंगिक
निर्देशक एवं लेखक अंबुज कुकरेती ने बताया कि रंगमंच और रामलीलाओं में पंडित जी की रचनाएं आज भी प्रासंगिक हैं। राधेश्याम रामायण और रामलीलाओं के जरिये मर्यादा के किरदार को लोग और आसानी से समझ सके। उन्हीं की रचनाओं को आधार बनाकर हम आगे बढ़ रहे हैं। उत्तराखंड के कलाकार आज भी पंडित जी के लिखे संवादों को उपयोग करते हैं।
संगीत-अकादमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक व निर्देशक डॉ. बृजेश्वर सिंह ने कहा कि रुहेलखंड की रामलीलाएं और राधेश्याम रामायण एक-दूसरे के पूरक हैं। हम नए स्वरूप में उसका प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं। विंडरमेयर थिएटर की संगीतमयी रामलीला पूरी तरह राधेश्याम रामायण पर ही आधारित है। कुछेक नए प्रयोग व तकनीकी के जरिये इसमें नयापन लाने का प्रयास भी हमारी टीम ने किया है, जिसे दर्शकों का प्यार भी मिल रहा है।