अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को अल्पसंख्यक दर्जा दिए जाने के कानून से जुड़ा मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में है। चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सात जजों की संविधान पीठ ने लगातार तीसरे दिन सुनवाई की। अदालत ने पूछा, 'जब AMU राष्ट्रीय महत्व का संस्थान है, तो अल्पसंख्यक दर्जे के क्या मायने हैं?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) को 1981 में संसद से पारित कानून के तहत अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिला है। एएमयू को अल्पसंख्यक दर्जा और 1981 के कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित है। सात जजों की संविधान पीठ इस पेचीदा मुकदमे की सुनवाई कर रही है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की पीठ ने गुरुवार को लगातार तीसरे दिन की सुनवाई में पूछा कि जब एएमयू राष्ट्रीय महत्व का संस्थान बना हुआ है, तो अल्पसंख्यक दर्जा कैसे मायने रखता है?
अदालत ने साफ किया कि संविधान के अनुच्छेद 30 का इरादा 'अल्पसंख्यकों को खास इलाके में बसाना' (ghettoise the minority) नहीं है। अनुच्छेद 30 देश में शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और इनके प्रशासन के लिए अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित है। शीर्ष अदालत ने 2006 में पारित इलाहाबाद उच्च न्यायालय की पीठ के फैसले पर भी विचार किया। इस बात पर भी गौर किया गया कि एस अजीज बाशा बनाम भारत सरकार मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट के 1967 में पारित फैसले को गलत मानने पर हाईकोर्ट के आदेश पर क्या असर पड़ेगा?
उन्होंने कहा कि अगर शीर्ष अदालत बाशा मामले में दिए गए 56 साल पुराने फैसले को बरकरार रखती है तो एएमयू पहली बार गैर-अल्पसंख्यक संस्थान बनेगा। उन्होंने कहा, जब महिलाओं की शिक्षा बात आती है, तो एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा बहुत प्रासंगिक है। अगर एएमयू मुस्लिम अल्पसंख्यक संस्थान नहीं रहेगा, तो मुस्लिम महिलाओं की उच्च शिक्षा में बाधा आ सकती है। इस पर सरकार की तरफ से दलीलें पेश कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, 'मुस्लिम महिलाएं हर जगह पढ़ रही हैं। उन्हें कमतर न आंकें।