प्रिय समाज,
आज इस पत्र के माध्यम से तुमसे बात करने का मौका मिला है। ये पूछना कि तुम कैसे हो, शायद तुम्हारा उपहास उड़ाने के बराबर होगा। क्योंकि, हम सब जानते हैं कि तुम किस दयनीय अवस्था में हो।
दुनिया के रचयिता ने पृथ्वी पर जब जीवन दिया तो हम मनुष्यों ने समाज की उत्पत्ति की। समाज मनुष्य के विचारों को अभिव्यक्त करता है। तुम्हीं तो हमारी सभ्यता और संस्कृति के उद्घोषक रहे हो। हमारा शरीर नाशवान है पर तुम तो सदैव जीवित रहते हो उन गौरव गाथाओं के परिचायक के रुप में जो हमारे अस्तित्व की पहचान को परिलक्षित करता है।
फिर तुम्हारी यह दयनीय और असहाय स्थिति कैसे हो गयी? अब तुम कहोगे कि मुझे पता है फिर भी तुमसे पूछ रही हूं। आज तुम्हारी इस स्थिति के उत्तरदायी भी तो हम इंसान ही हैं। हमने अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए तुम्हारे नाम का सहारा लिया और अपनी स्वार्थी प्रवृत्ति को अंजाम देते चले गए।
तुम्हारे नाम का सहारा ले हमने ना जाने कितनी कुरीतियों को जन्म दे दिया। जिसका बोझ आज हमारे देश का हर प्राणी भुगत रहा है। तुम्हारे नाम के पीछे छिप कर कितने अनैतिक कार्यों को अंजाम दिया, सामाजिक भेदभाव उत्पन्न किए, दंगे फसाद कराए, अराजकता फैलाई, साम्प्रदायिक दंगों को अंजाम दिया, गरीब और महिलाओं का ना जाने किन - किन आधारों पर शोषण किया और पूछने पर ठीकरा तुम पर फोड़ दिया कि समाज यही चाहता है, समाज यही कहता है।
मैं जानती हूं कि तुम पूछना चाहते हो कि समाज ने ऐसा कब कहा? अरे! समाज को बनाया किसने है? मनुष्य ने ही ना? तो इसे चलाने की ज़िम्मेदारी भी तो मनुष्य की है ना? समाज मनुष्य से है, ना कि मनुष्य समाज से। समाज तो केवल हम मनुष्यों की सोच का आइना होता है। जैसे हमारी सोच वैसा हमारा समाज।
आज मैं इस पत्र के माध्यम से एक संकल्प करती हूं समाज, कि अपनी कलम के माध्यम से मैं तुम्हारी स्थिति को बेहतर करने की कोशिश करुंगी। जितना मेरा सामर्थ्य है, मैं तुम्हें न्याय दिलाने की कोशिश करुंगी। यदि मेरी कलम से मैं समाज के एक छोटे से वर्ग में भी बदलाव ला सकी तो अपने आपको सौभाग्यशाली समझूंगी।
जब तक बदलाव ना आ जाए और तुम्हें तुम्हारा सही अर्थ वापस ना मिल जाए तब तक तुम भी डटे रहना। क्योंकि हम दोनों ही एक दूसरे को पूरक हैं। हमारा और तुम्हारा भविष्य एकदूसरे से जुड़ा है।
आशा करती हूं कि जब मैं अगली बार तुम्हें पत्र लिख रही होंगी तब तक स्थिति बहुत बेहतर हो गई होगी।
उम्मीद और आशा के साथ
लेखिका
आस्था सिंघल
नई दिल्ली।