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स्त्री-विमर्श

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   अधिकतर लोग दूसरों के गुण अवगुणों पर अधिक ध्यान देते हैं परन्तु अपनी ओर देखने का अभ्यास बहुत कम लोगों को होता है। बहुत कम लोग इस जीवन में मृत्यु से पूर्व अपने आपको पहिचान पाते हैं’ बहुत कम

प्रेम क्या है...?मैनें सुना है, एक बहुत पुराना वृक्ष था. आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे. उस पर फूल आते थे तो दूर-दूर से पक्षी सुगंध लेने आते. उस पर फल लगते थे तो तितलियाँ उड़तीं. उसकी छाया

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हर बच्चा पैदा होने के बाद जब बोलना सीखता है तो उसके मुँह से जो पहला शब्द निकलता है, वह 'माँ' होता है और जीवन में जब भी उसके सिर पर कोई भी मुसीबत आन पड़ती है तो उसे 'माँ' जरूर याद आती हैै। क्योँकि ए

आज कुसुम बहोत खुश थी, घर की साफ- सफाई हो गई थी दीवारों पे नया रंग लगा था, दरवाजो पर फूलो के हार, और आंगन मे रंगोली बनी थी। कुसुम को देखने आज विनयबाबू आ रहें थे। वो दोपहर को आ गये, उनको कच्ची

रेड लाइट एरिया की तंग गलियो से विष्णु गुजर रहा था, हर एक घर उसे अपने अंदर समा लेना चाहता, लेकिन सौदा पक्का ना होने की बजेसे वो बस इधर उधर घूम रहा था। आखिर कार उसे वो पसंद आ गई, दरवाजे़ पर बैठ कर

वो रोज की तरहा आज भी ऑफिस को लेट हो गया था। जल्दी जल्दी भागते सासें फुलाता लिफ़्ट के पास आ गया था। कितना सेक्रेटरी के पीछे लग लग कर उसने ये सोसाइटी की लिफ़्ट चालु करवा दी थी, आखिर दसवें मजले से न

जो औरत का मजाक उड़ाते हैं।जो औरत पर जोक्स सुनाते हैं।कभी लेबर रूम में जाकर।दर्द से तड़पती हुई औरत को देखें।कितनी ही हड्डियाँ टूटने जैसा होता है दर्द।औरत की वेदना को क्या समझेगा एक मर्द।लाखों बार मर कर

वो जब स्कूल की तरफ़ रवाना हुआ तो उसने रास्ते में एक क़साई देखा, जिसके सर पर एक बहुत बड़ा टोकरा था। उस टोकरे में दो ताज़ा ज़बह किए हुए बकरे थे खालें उतरी हुई थीं, और उनके नंगे गोश्त में से धुआँ उठ रहा था

नाम उसका सलीम था मगर उसके यार-दोस्त उसे शहज़ादा सलीम कहते थे। ग़ालिबन इसलिए कि उसके ख़द-ओ-ख़ाल मुग़लई थे, ख़ूबसूरत था। चाल ढ़ाल से रऊनत टपकती थी। उसका बाप पी.डब्ल्यू.डी. के दफ़्तर में मुलाज़िम था। तन

ज़हीर जब थर्ड ईयर में दाख़िल हुआ तो उसने महसूस किया कि उसे इश्क़ हो गया है और इश्क़ भी बहुत अशद क़िस्म का जिसमें अक्सर इंसान अपनी जान से भी हाथ धो बैठता है। वो कॉलिज से ख़ुश ख़ुश वापस आया कि थर्ड

जावेद मसऊद से मेरा इतना गहरा दोस्ताना था कि मैं एक क़दम भी उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ उठा नहीं सकता था। वो मुझ पर निसार था मैं उस पर। हम हर रोज़ क़रीब-क़रीब दस-बारह घंटे साथ साथ रहते। वो अपने रिश्तेदारों स

बाबू गोपीनाथ से मेरी मुलाक़ात सन चालीस में हुई। उन दिनों मैं बंबई का एक हफ़तावार पर्चा एडिट किया करता था। दफ़्तर में अबदुर्रहीम सेनडो एक नाटे क़द के आदमी के साथ दाख़िल हुआ। मैं उस वक़्त लीड लिख रहा था।

पहले छुरा भोंकने की इक्का दुक्का वारदात होती थीं, अब दोनों फ़रीक़ों में बाक़ायदा लड़ाई की ख़बरें आने लगी जिनमें चाक़ू-छुरियों के इलावा कृपाणें, तलवारें और बंदूक़ें आम इस्तेमाल की जाती थीं। कभी-कभी देसी

सवा चार बज चुके थे लेकिन धूप में वही तमाज़त थी जो दोपहर को बारह बजे के क़रीब थी। उसने बालकनी में आकर बाहर देखा तो उसे एक लड़की नज़र आई जो बज़ाहिर धूप से बचने के लिए एक सायादार दरख़्त की छांव में आलती पालत

खज़ाने के तमाम कलर्क जानते थे कि मुंशी करीम बख़्श की रसाई बड़े साहब तक भी है। चुनांचे वो सब उसकी इज़्ज़त करते थे। हर महीने पेंशन के काग़ज़ भरने और रुपया लेने के लिए जब वो खज़ाने में आता तो उसका काम इसी वज

मौत के आगोश में समा जाऊं, उससे पहले कुछ पल जी लेने दो?? मन में उठने वाले प्रश्नों को कह लेने दो? दिल में पनपते आक्रोश़ के तूफ़ान को!! शब्द बनने दो? कब तक मन में उमड़ते जज़्बात को? मैं दबा पाऊंगी? वह श

मौत के आगोश में समा जाऊं, उससे पहले कुछ पल जी लेने दो?? मन में उठने वाले प्रश्नों को कह लेने दो? दिल में पनपते आक्रोश़ के तूफ़ान को!! शब्द बनने दो? कब तक मन में उमड़ते जज़्बात को? मैं दबा पाऊंगी? वह श

दिन रविवार24/4/2022 आज मैं अपनी डायरी में कुछ मन की बात करूंगी आज सुबह से ही घर के कामों में उलझी रही फिर जब समय मिला तो प्रतिलिपि पर आज के विषय पर एक कहानी लिखी फिर खाना खाने के बाद मैं अपना मोबाइल ल

 त्रियाचरित्रम्" अर्थात तीन प्रकार के चरित्र 1.सात्विक, 2. राजसिक ,  3.तामसिक ब्रह्माण्ड का सञ्चालन सुचारु रूप से चलाने के लिये उन्होंने तीन प्राकृतिक गुणों की रचना की जो

सांझ ढलते ही मै छत पर आती हूं, हे चांद तू कब आएगा? इंतज़ार करती हूं, मेरा संदेशा मेरे प्रियतम तक पहुंचा दे, मैं तुझसे हर दिन इज़हार करतीं हूं, तू क्यों मौन है? कुछ कहता नहीं? मेरे दिल की तड़प को क्यों

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