*इस धरा धाम पर आने के बाद मनुष्य अनेकों कृत्य करता रहता है जिसके कारण वह इस संसार में किसी को अपना शत्रु तो किसी को अपना मित्र मानने लगता है | यदि हमारे सनातन शास्त्रों की बात की जाय तो मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु मनुष्य के मानसिक विकार हैं जिन्हें काम , क्रोध , मद , लोभ , मोह , अहंकार की उपमा दी गई है | इन्हें शत्रु बुद्धि भी कहा जाता है क्योंकि यह सारे अवगुण बुद्धि की ही उपज होते हैं जिनकी प्रबलता हो जाने पर यह बुद्धि को भ्रष्ट कर देते हैं | मनुष्य सांसारिक शत्रुओं से लड़ते हुए तो विजय पा जाता है परंतु अपने इन आंतरिक शत्रुओं से वह विजय नहीं प्राप्त कर पाता क्योंकि मनुष्य ने त्याग की प्रवृत्ति को छोड़ दिया है | हमारे महापुरुषों इन विकारों पर विजय प्राप्त की तो उसका एक यही कारण था कि उन्होंने त्याग करना सीखा था | काम , क्रोध , मद , लोभ , मोह , अहंकार सृष्टि के आदिकाल से हैं और अंत काल तक रहेंगे इनसे कोई भी न तो बच पाया है और ना ही बच पाएगा , परंतु इनका त्याग किया जा सकता है | इनका त्याग करके ही मनुष्य इनसे बच सकता है अन्यथा मनुष्य के प्रबल शत्रु मनुष्य की प्रगति में सबसे बड़े बाधक के रूप में प्रस्तुत हो जाते हैं | विचार कीजिए सांसारिक रिश्तो को टूटने का सबसे बड़ा कारण लोभ एवं अहंकार ही माना जाता है | यदि मनुष्य लोभ एवं अहंकार का त्याग कर भी तो शायद परिवार टूटने से बच जायं , परंतु मनुष्य अपने सबसे बड़े शत्रु को पहचान नहीं पाता है और उसी की बस में हो करके सारे क्रियाकलाप करता है | यही कारण है कि मनुष्य की प्रगति बाधित हो रही है | कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि जब ईश्वर ने इसे बनाया है तो इससे बचा नहीं जा सकता | मैं यह नहीं कहता हूं कि इसके बिना जीवन जिया जा सकता है परंतु यह भी सत्य है कि अधिकता सदैव घातक रही है फिर वह चाहे जिस चीज की हो | सांसारिक शत्रु को पराजित करने के लिए सदैव तत्पर रहने वाला मनुष्य अपने आंतरिक शत्रुओं से परास्त होकर अनेकों प्रकार के कुकृत्य करता रहता है और यह अवगुण मनुष्य की बुद्धि को कुबुद्धि में परिवर्तित करके उससे इस प्रकार के कार्य करवाते रहते हैं | इसलिए मनुष्य को सबसे पहले अपने आंतरिक शत्रुओं से विजय प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए |*
*आज के आधुनिक युग में काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार की अधिकता चतुर्दिक स्पष्ट दिखाई पड़ रही है | इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि आज के मनुष्य ने पाश्चात्य संस्कृति को अपनाकर अपनी सनातन संस्कृति को भूलने का कार्य किया है | काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार को कम करने के अनेक सूत्र हमारे सनातन ग्रंथों में देखने को मिलते हैं | इन पर यदि विजय न प्राप्त कर पाई जाय तो कम से कम इतना तो किया जाय कि यह हमारे बस में रहे | कुछ लोग यह भी कहते हैं कि इनसे बच पाना या इन्हीं अपने बस में करना असंभव है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे लोगों को बताना चाहूंगा कि जिस प्रकार मधुमेह का रोगी चिकित्सक के पास जाता है तो चिकित्सक उसको यही बताते हैं कि यह रोग समाप्त तो नहीं होगा लेकिन समय पर औषधि लेते रहने तथा परहेज करते रहने से इसे बढ़ने से रोका जा सकता है | उसी प्रकार काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार समाप्त तो नहीं किया जा सकता परंतु समय-समय पर सत्संग रूपी अौषधि एवं कुसंग का परहेज करते रहने से इसे अपने बस में किया जा सकता है | कहने का तात्पर्य है कि इस संसार में असंभव कुछ भी नहीं है जिसे कि मनुष्य ना कर पाए परंतु जितनी इच्छाशक्ति मनुष्य की आज सांसारिक विषयों में दिखाई पड़ रही है उस की अपेक्षा अपने आंतरिक विकारों के विषय में जानने समझने या उन्हें बस में करने की ओर कदापि नहीं है | यही कारण है कि आज संसार में चारों ओर इन अवगुणों की बहुलता के कारण ही त्राहि-त्राहि मची हुई है | त्याग की प्रवृत्ति को अपनाकर इन अवगुणों को अपने बस में किया जा सकता है परंतु इसके लिए भी एक सशक्त इच्छाशक्ति की आवश्यकता पढ़ती है , आज जिस का अभाव दिखाई पड़ रहा है | जिसने भी प्रबल इच्छा शक्ति के साथ इन अवगुणों का त्याग किया वे महापुरुषों की श्रेणी में आ गए | आज आवश्यकता है कि हम सत्संग रूपी औषधि एवं कुसंग का परहेज करके इन रोगों पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें |*
*प्रत्येक युग में काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार का बोलबाला रहा है परंतु इसी पृथ्वी पर इसे जीतने वाले भी होते रहे हैं यदि हम चाहें तो हम भी ऐसा अवश्य कर सकते हैं |*