*संसार में मनुष्य के लिए जितना महत्त्व परिवार व सगे - सम्बन्धियों का है उससे कहीं अधिक महत्त्व एक मित्र है | बिना मित्र बनाये न तो कोई रह पाया है और न ही रह पाना सम्भव है | मित्रता का जीवन में एक अलग ही स्थान है | मित्र बना लेना तो बहुत ही आसान है परंतु मित्रता को स्थिर रखना और जीवित रखना, सदा-सदा के लिए बनाये रखना भी एक साधना है | यह हृदय के निर्बाध आदान-प्रदान पर स्थिर रहती है | मैत्रीपूर्ण संबंध एक परिवार के सदस्यों में भी नहीं हो सकते हैं और हो अनजान व्यक्तियों में दो सकते हैं | परंतु मित्र बनाते समय इतना अवश्य ध्यान रखें कि जिसे मित्र बनाया जा रहा है उसका चरित्र कैसा है | क्योंकि पंचतंत्र में कहा गया है :-"आरम्भगर्थी क्षयिणी क्रमेण लब्धी पुरा वृद्धिमती च पञ्चान् ! दि स्य पूर्वार्ध परार्ध भिन्ना छायेव मैत्री अल प्रज्जनात् !!" अर्थात :- “दुष्ट की मित्रता सूर्य उदय के पीछे की छाया के सदृश्य पहले तो लंबी चौड़ी होती है फिर क्रम से घटती जाती है और सज्जनों की मित्रता तीसरे पहर की छाया के सदृश्य पहले छोटी और फिर क्रमशः बढ़ती जाती है |" विपरीत चरित्र से मित्रता करने पर आपका भविष्य भी अंधकारमय हो सकता है | वैसे तो संसार में मित्रता की अनेक कथाये पढने या सुनने को मिल जाती हैं परंतु इतिहास की दो प्रमुख कथायें मित्रता का अलौकिक उदाहरण हैं | भगवान श्री कृष्ण एवं दरिद्र ब्राह्मण सुदामा की मित्रता तो जगतविदित है ही वहीं द्वापरयुग में ही दुर्योधन एवं कर्ण की मित्रता को अनदेखा नहीं किया जा सकता | दुर्योधन की गल्ती जानते हुए भी , कुन्ती द्वारा कर्ण को अपना ही पुत्र होने का रहस्य बताने के बाद भी , कर्ण ने दुर्योधन की मित्रता का त्याग न करते हुए
भारत के महाभारत में दुर्योधन की ही ओर से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ | ऐसा उदाहरण शायद ही कोई दूसरा देखने को मिले |* *आज के मित्र एवं मित्रता का सत्य क्या है यह बताने की आवश्यकता ही नहीं रह गयी है | आज लोग सच्ची मित्रता की अपेक्षा स्वार्थवश ही मित्र बनते एवं बनाते रहते हैं | आज का मनुष्य स्वयं को इतना चालाक समझने लगा है कि अपना कोई भी कार्य सम्पन्न कराने के लिए मित्र बना लेता है और जैसे ही उसका वह कार्य सम्पन्न हो जाता है वह अपने तथाकथित मित्र को पहचानना भी बंद कर देता है | मित्रता करते समय सर्वप्रथम जिसे आप मित्र बनाना चाहते हैं उसे अपनी कसौटी पर कसकर देख लें कि यह खरा है कि नहीं क्योंकि मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज
समाज में देख रहा हूँ कि न तो मित्र बनाते देर लगती है और न ही मित्रता टूटने में | मित्रता जब टूटती है तो यह शत्रुता में ही परिवर्तित होती है | प्रत्येक मनुष्य को उन कारणों पर ध्यान देना आवश्यक है जिसके कारण मित्रता में दरार आ जाती है | आचार्य चाणक्य ने लिखा है :-- "इच्छेच्चेद विपुलाँ मैत्री त्रीणि तत्रन कारयेत् ! वाग्वादमर्थ संबंध तत्पत्नी परिभाषणम् !!" अर्थात :- “मित्र से बहस करना, उधार लेना-देना, उसकी स्त्री से बात-चीत करना छोड़ देना चाहिए | ये तीनों बातें मित्रता में बिगाड़ पैदा कर देती हैं | ” मित्र के काम के समय और व्यस्तता को ध्यान में न रखकर उसका समय बरबाद करना, घर आने पर उसको कोई महत्व न देना, बिना मतलब किसी भरोसे में रखना, व्यवहार में उपेक्षा रखना आदि ऐसी छोटी-छोटी बातें हैं जो मित्रता के लिए घातक सिद्ध हो सकती हैं | यदि इन बातों का ध्यान रखा जाय तो मित्रता चिरस्थायी हो सकती है |* *आज सम्पूर्ण विश्व में "मित्रता - दिवस" मनाया जा रहा है | परंतु क्या मित्रता को एक दिन ही मना लेना उचित है ?? कदापि नहीं ! मित्रता प्रतिदिन मनानी चाहिए न कि एक दिन |*