!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! इस सृष्टि में परमपिता परमात्मा ने मनुष्य को जो भी बल, बुद्धि एवं विवेक दिया है, उसके हृदय में दया, करुणा, सहृदयता, सहानुभूति अथवा संवेदना की भावनायें भरी हैं, वे इसलिये नहीं कि वह उन्हें अपने अन्दर ही बन्द रखकर व्यर्थ चला जाने दे | उसने जो भी गुण और विशेषता मनुष्यों को दी हैं वह इसीलिए कि वह उनका उपयोग संसार की सेवा करने, उसे लाभ पहुंचाने में करे | जो मनुष्य ऐसा नहीं करता वह ईश्वर के मन्तव्य के विरुद्ध आचरण करता और उन गुणों के लिये अपने को अयोग्य सिद्ध करता है | करुणा, दया, क्षमा आदि के अपने गुण ईश्वर मनुष्यों के माध्यम से ही प्रकट करता है | अन्याय एवं अत्याचार करना अथवा उसे सहना तो पाप है ही, दूसरे निर्दोष प्राणियों पर अत्याचार होते देख कर उसका प्रतिकार न करना, चुपचाप उसे देखते रहना अथवा उसकी उपेक्षा कर देना भी एक पाप है |अन्याय अथवा अत्याचार को देख-सुनकर चुपचाप रह जाना, उसका प्रतिकार अथवा विरोध न करने वाला अत्याचारी की तरह ही पाप का भागी बनता है | क्योंकि निर्बल अथवा निर्दोष पर होने वाले अत्याचार को देखकर उसकी उपेक्षा कर देना, मौन रह जाने का अर्थ है उस कुकृत्य का समर्थन करना | मौनता स्वीकृति का लक्षण माना गया है | अन्याय अथवा अत्याचार का सामर्थ्य भर विरोध करना प्रत्येक विवेक एवं धर्मवान व्यक्ति का अनिवार्य कर्तव्य है | आज का मनुष्य "अहिंसा परमो धर्म:" का मूलमंत्र भूल सा गया है | आज दिन-दिन संसार में अन्याय एवं अत्याचार की वृद्धि होती जा रही है | इसका कारण यही है कि लोग प्रमादवश उसका विरोध नहीं करते, जिससे कि वह सभी दिशाओं में अबोध गति से बढ़ता चला जा रहा है | किन्तु निरीह, निर्बल एवं निर्दोषी पशुओं पर भी मनुष्यों का अत्याचार अपनी पराकाष्ठा को पार कर गया है | आज संसार में प्रतिदिन हजारों-लाखों निर्दोष पशु-पक्षियों का संहार किया जाता है | कहीं भोजन के लिए, कहीं उनके अस्थि-पिंजर का उपयोग करने के लिये तो कहीं देवी-देवताओं के नाम पर बलि के रूप में | इतना ही नहीं, मनोरंजन, शिकार खेलने तथा निशाना साधने के लिये भी न जाने कितने पशु-पक्षियों की अकारण हत्या की जा रही है | आज के बुद्धिमानी युग में जबकि मनुष्य अपनी वन्यावस्था से बहुत आगे आ गया है इस प्रकार पशु-पक्षियों का हत्याकाँड बड़ी लज्जा की बात है | एक ओर जहाँ मनुष्य ईश्वर, जीव, प्रकृति, पुरुष, जड़-चेतना, आत्मा, धर्म, ज्ञान-विज्ञान की बात करता है वहाँ दूसरी ओर निर्बल, निरीह एवं निर्दोष प्राणियों की गर्दन काट रहा है | एक ओर जहाँ मनुष्य अपने को परमात्मा का अंश मानता है और अपने को दयालु, क्षमा-शील, करुणा एवं पर दुःख कातर होने का दावा कर रहा है, अपने को
धर्म ज्ञाता, अहिंसक तथा सहानुभूति-सम्पन्न बतला रहा है वहाँ दूसरी ओर पशुओं को मारकर खा रहा है, उनकी खाल खींच रहा है और देवताओं के नाम पर उनके प्राण ले रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी"
समाज के बुद्धिजीवियों से पूछना चाहता हूँ कि क्या मनुष्य का यह कुत्सित कर्म उसे इस दावे से नीचे नहीं गिरा देता कि वह सृष्टि का सबसे श्रेष्ठ एवं धर्मशील प्राणी है | निश्चय ही मनुष्य द्वारा पशु-पक्षियों पर होने वाले अत्याचार को देख कर यही कहना पड़ता है कि मनुष्य का यह दावा झूठा, मिथ्या तथा आत्म-प्रवर्चना पूर्ण है |