*इस संसार में जिस प्रकार संसार में उपलब्ध लगभग सभी वस्तुओं को अपने योग्य बनाने के लिए उसे परिमार्जित करके अपने योग्य बनाना पड़ता है उसी प्रकार मनुष्य को कुछ भी प्राप्त करने के लिए स्वयं का परिष्कार करना परम आवश्यक है | बिना परिष्कार के मानव जीवन एक बिडंबना बनकर रह जाता है | सामान्य मनुष्य , यों ही अपना जीवन तुच्छ प्रयोज्यों के लिए लगाते दिखाई पड़ते हैं परंतु जब उन्हें परिष्कार , परिशोधन व परिमार्जन की प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है तो वही मनुष्य स्वयं की गणना महापुरुषों व अवतारी सत्ताओं के रूप में कराते दिखाई पड़ते हैं | मनुष्य को मानव से महामानव बनने के लिए स्वयं का परिष्कार करना ही होता है | परिष्कार क्या है ??? हमारे सनातन ग्रंथों में परिष्कार के चार सोपान बताये गये हैं | १- आत्मनिरीक्षण , २- आत्मसुधार , ३- आत्मनिर्माण एवं ४- आत्मविकास |
आध्यात्म क्षेत्र में रमण करने वाले मनीषियों ने सर्वप्रथम इन चारों सोपानों को पार किया है | संसार को न देखकर सबसे पहले मनुष्य को आत्मनिरीक्षण (स्वयं को देखना) करना चाहिए | जब आत्मनिरीक्षण किया जायेगा तो स्वयं की कमियां दिखाई पड़ेंगी | मनुष्य को गिन गिनकर अपनी कमियों को स्वयं में खोजकर उसको समाप्त करके स्वयं को सत्पथ का अनुगामी बनाने का प्रयास करना चाहिए | यही आत्मसुधार कहा गया है | जब मनुष्य आत्मसुधार की प्रक्रिया से गुजरता है तो वह संसार की ओर न देखकर स्वयं को किसी योग्य बनाने अर्थात आत्मनिर्माण करने में जुट जाता है | ऐसा करने के बाद ही मनुष्य का आत्मविकास सम्भव है | यही आध्यात्म का प्रवेश द्वार है |* *आज समाज में अनेक विद्वान स्वयं को पौराणिक , वैदिक एवं आध्यात्मिक मानते हैं , संसार में उनका यश भी इसी नाम से फैलता है परंतु दुखद यह है कि उन्होंने शायद आत्मपरिष्कार नहीं किया है | पुस्तकें पढकर , गुरुओं से
ज्ञान प्राप्त करके स्वयं को इन पदवियों से सुशोभित करने वालों ने स्वयं का अवलोकन करना बन्द कर दिया है | जैसे कि पाँचों उंगलियां भी बराबर नहीं होती हैं उसी प्रकार अपवाद स्वरूप कुछ विद्वानों को छोड़ दिया जाय तो प्राय: समाज में ऐसे ही विद्वान दिखाई पड़ते हैं जिन्होंने शायद आज तक न तो आत्मनिरीक्षण किया और न ही क्योंकि उन्हें दूसरों का ही दोष देखने से फुर्सत नहीं हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" यह कह सकता हूँ कि संसार को सुधारने में लगे हुए अनेकानेक विद्वानों ने कभी भी "आत्मसुधार" का प्रयास भी न किया होगा | क्योंकि कभी न कभी इन विद्वानों के क्रोध भरे ऐसे - ऐसे वक्तव्य आम जनमानस को सुनने को मिलते हैं उससे यह वितार करने पर विवश हो जाना पड़ता है कि क्या इन महापुरुष ने कभी "आत्मनिर्माण" का प्रयास किया होगा ?? हमें कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि इसी पंक्ति में मेरा भी नाम हो सकता है | आज हम अपनी कमियों को छुपाने के लिए दूसरों पर दोषारोपण करने में सिद्धहस्त होते जा रहे हैं | क्योंकि हमें आज "आत्मनिरीक्षण" करने में स्वयं का अपमान प्रतीत होता है | यही कारण है कि आज हम कहीं न कहीं से पतनोन्मुख हो रहे हैं | संसार को सुधारने का बीड़ा उठाने के पहले स्वयं को सुधारना होगा , अन्यथा कुछ भी नहीं होने वाला है |* *जिस प्रकार कोयला घिसने के बाद हीरा बन जाता है उसी प्रकार स्वयं को परिमार्जित करना होगा तभी समाज में स्थापित हुआ जा सकता है |*