*ईश्वर की अनुपम कृति है मानव | अनेक गुणों का समावेश करके ईश्वर ने मनुष्य की रचना की है | इस धराधाम पर आकर इन्हीं गुणों के माध्य से मनुष्य ने अपना नाम इतिहास पुराणों में स्वर्णाक्षरों में लिखाया है | वैसे तो मनुष्य के सभी गुणों का बखान कर पाना तो सम्भव नहीं है परंतु जो गुण मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने में सहायक हैं उनमें से एक विशेष गुण है "नम्रता" | नम्रता नैतिक और आध्यात्मिक क्षेत्र की वह भावना है, जो सब मनुष्यों में, सब प्राणियों में, स्थित शाश्वत सत्य से , ईश्वर से सम्बन्ध कराती है | इस तरह उसे जीवन के ठीक-ठीक लक्ष्य की प्राप्ति कराती है | जगत में उस शाश्वत चेतना का, ईश्वर का दर्शन कर, मनुष्य का मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है | इसी भाव से भावविभोर होकर गोस्वामी तुलसीदास जी ने साधु , असाधु , संत , असंत , पुण्यात्मा एवं नीच मनुष्यों की भी वन्दना करते हुए अनंत में लिख दिया :- “सिया राम मय सब जग जानी !करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी !!" यहाँ पर बाबा जी ने सभी चराचर में सीताराम जी का दर्शन करके सबको प्रणाम करके अपनी नम्रता का तो परिचय दिया ही है साथ ही अपने अहंभाव का भी समूल नाश किया है | नम्रता का अर्थ है अहंता के बन्धन तोड़ देना और अहंता के बन्धन तोड़ना, नम्र होना, विश्वात्मा के साथ एकता स्थापित होना सब एक ही अर्थ रखते हैं | नम्रता मुक्ति का सरल साधन है, नम्रता से ही आत्मसमर्पण की वृत्ति पैदा होती है और बिना आत्मसमर्पण के "आत्मकृपा नहीं प्राप्त हो सकती |* *आज प्रत्येक मनुष्य कहीं न कहीं अहंभाव से ग्रसित है जिसके कारण नम्रता का भाव समाप्त होता जा रहा है | जबकि यह सर्वविदित है कि फलदार वृक्ष सदैव झुके रहते हैं परंतु आज शायद यह भाव कहीं कहीं ही देखने को मिलता है | इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि जो झुका नहीं वह नम्र नहीं है , नम्रता उसमें भी हो सकती है परंतु अहंभाव से ग्रसित नम्रता | जहाँ तक मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" जानता हूँ कि एक होती है हृदयहीन नम्रता, जिसमें अभिमानी मनुष्य अपने बड़प्पन को बनाये रखने अथवा बढ़ाते जाने के लिए झूठी नम्रता का स्वाँग करता है | ऐसी दिखावटी नम्रता का बाजार आज बहुत गर्म है | स्वार्थी, पदलोलुप, अभिमानी व्यक्तियों ने नम्रता को भी अपने साधनों में से एक बना लिया है | ऐसी दिखावटी नम्रता बड़ी खतरनाक है | मिथ्या भावुकता, आत्मविश्वास की कमी और हीन भाव युक्त गम्भीरता-विनम्रता भी नम्रता नहीं। इससे दूर रहा जाय | आँधी में जो वृक्ष तनकर खड़े होते हैं वे या तो टूट जाते हैं या फिर उखड़ जाते हैं वहीं जिन वृक्षों में झुकने का भाव (लचीलापन) है उनका बड़े - बड़े तूफान भी कुछ नहीं कर पाते | शायद इसीलिए नम्रता को मनुष्य का एक विशेष गुण माना जाता रहा है | आज विद्वानों की बात मानी जाय तो विद्या सबसे पहले मनुष्य को विनयी (नम्र) ही बनाती है !"विद्या ददाति विनयम्" | परंतु मनुष्य कभी कभी अपने अहंभाव या भावावेश में आकर इस विशेष गुण को अनदेखा करने लगता है और अंततोगत्वा उसे ठोकर ही लगती है |* *प्रत्येक मनुष्य को सदैव नम्र बने रहने का प्रयास करते रहना चाहिए नम्रता का अर्थ दुर्बलता नहीं अपितु नम्रता मनुष्य को आंतरिक शक्ति प्रदान करती हैं |*