*इस धरा धाम पर आदिकाल से लेकर वर्तमान तक अनेक शक्तिसम्पन्न विभूतियां अवतरित हुई हैं | जिनकी गणना कर पाना शायद सम्भव नहीं है | इन शक्तिसम्पन्न विभूतियों को प्राप्त शक्ति का स्रोत क्या रहा होगा , यदि इस पर विचार किया जाय तो परिणाम यही निकलेगा कि संसार भर उपस्थित सभी प्रकार की शक्तियों का स्रोत है --
ज्ञान | ज्ञान ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति है | शक्ति उसी को कहा जा सकता है जो कभी नष्ट न हो | संसार में धन , यौवन , कुटम्ब , सम्पत्ति सभी कुछ यहाँ तक कि यह शरीर भी समय आने पर नष्ट हो जाते हैं ! परंतु इन्हीं सब में समाया हुआ ज्ञान ही ऐसा अक्षय तत्व है जो कभी नष्ट नहीं होता | धन को मनुष्य की शक्ति कहा जाता है परंतु धन कमाने के लिए
व्यापार करना पड़ेगा और व्यापार करने के लिए उस व्यापार का ज्ञान होना अत्यावश्यक है | अर्थात बिना ज्ञान के न तो धनार्जन किया जा सकता है और न ही मनुष्य अपने शत्रु एवं मित्र की पहचान ही कर पाता है | किसी शक्ति के उपलब्ध हो जाने के बाद भी उसकी रक्षा और उसके उपयोग के लिये भी ज्ञान की आवश्यकता होती है | ज्ञान के अभाव में शक्ति का होना न होना बराबर होता है | उसका कोई लाभ अथवा कोई भी आनन्द नहीं उठाया जा सकता | उदाहरण के लिये मान लिया जाये कि कोई उपार्जन अथवा उत्तराधिकार में बहुत सा धन पा जाता है या किसी संयोगवश उसे अकस्मात मिल जाता है, तो क्या यह माना जा सकता कि वह धन शक्ति वाला हो गया | क्योंकि धन में स्वयं अपनी कोई शक्ति नहीं होती है, वह शक्ति तभी बन पाती है, जब उसके साथ उसके प्रयोग अथवा उपयोग में ज्ञान का समावेश होता है | इसलिए मेरा तो मानना यही है कि सबसे सर्वश्रेष्ठ संसार में यदि कुछ है तो वह है ज्ञान |* *संसार में किसी भी कार्य को सम्पन्न करने के लिए उस विषय में ज्ञान का होना आवश्यक है | अर्थात बिना ज्ञान के मनुष्य पशु के समान है | जब यह स्थापित हो गया कि संसार में ज्ञान बहुत ही आवश्यक है तो ऐसे में यह जान लेना परमावश्यक है कि आखिर -- "ज्ञान क्या है ??" गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने तीन प्रकार के ज्ञान की व्याख्या करते हैं सात्त्विक , राजसिक , तामसिक | ज्ञान क्या है ? अर्जुन को बताते हुए कहते हैं कि ज्ञान का अर्थ है विवेक | अर्थात -- सत् - असत् , नित्य - अनित्य , शाश्वत - मरण
धर्म ा , कर्तव्य - अकर्तव्य के मध्य अंतर का बोध हो जाना ही ज्ञान है | मनुष्य के पास अपार सम्पत्ति हो परंतु उसका आंकलन करने का विवेक न हो तो उसके लिए वह सम्पत्ति व्यर्थ ही है | मनुष्य पढा - लिखा तो होता है परंतु पढ लेने मात्र से उसे ज्ञान हो जायेगा यह कोई आवश्यक नहीं है | ज्ञान प्राप्त करने के लिए मनुष्य को सज्जनों की संगति करनी पड़ेगी | कविकुलशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी बताते हैं --- "बिनु सतसंग विवेकु न होई" ! अर्थात आपके पास उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग करने के लिए आपको उसका ज्ञान प्राप्त करना होगा , और आपको ज्ञान तभी मिल सकता है जब आप किसी की संगति में रहकर उसे प्राप्त करने का उपक्रम करेंगे | भगवान श्री हरि नारायण के वाहन गरुड़ जी अज्ञान से ग्रसित होकर कागभुसुण्डि जी के पास सतसंग करने गये | बहुत काल तक सतसंग करने के बाद उनके ज्ञानचक्षु उन्मीलित हुए | ज्ञान के बिना सब व्यर्थ है |* *ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी सद्गुरु की आवश्यकता है ! परंतु इस संसार में जहाँ से भी ज्ञान मिलते देखे मनुष्य को ग्रहण कर लेना चाहिए |*