*सनातन
धर्म इतना व्यापक एवं वृहद है कि मनुष्य के जीवन की सभी आवश्यक आवश्कताओं की पूर्ति एवं प्रयोग कैसे करें यह सब इसमें प्राप्त हो जाता है | अंत में मनुष्य को मोक्ष कैसे प्राप्त हो यह विधान भी सनातन ग्रंथों में व्यापक स्तर पर दृश्यमान है | यह कहा जा सकता है कि सनातन
धर्म अर्थात "जीवन के साथ भी , जीवन के बाद भी" | सनातन धर्म में प्रत्येक मनुष्य के लिए "नवधा भक्ति" का उपदेश किया गया है | इस नवधा भक्ति में प्रथम भक्ति संतो - सज्जनों के संग को बताया गया है | क्योंकि साधुओं के, श्रेष्ठजनों के सत्संग से हमारी जड़ता-मूढ़ परंपरागत मान्यताएँ टूटती हैं एवं हमें होश आता है कि जिन्दगी कुछ अलग ढंग से अपने आपको सुव्यवस्थित बनाकर जी जा सकती है | सत्संग में प्रथम कोटि का सत्संग है, सत्य का, परमात्मा का संग | यह सर्वोच्च कोटि का सत्संग बताया गया है, जो कि समाधि की स्थिति में परमात्मसत्ता से एकात्मता स्थापित करके मिलता है | दूसरी कोटि का सत्संग वह है जो सत् तत्व से आत्मसात् हो चुके महापुरुषों के साथ किया जाता है | ऐसे व्यक्ति वे होते हैं, जिनके पास बैठने पर हमारे अंतःकरण में ईश्वर के प्रति ललक-जिज्ञासा पैदा होने लगे | आज ऐसे व्यक्ति बिरले ही मिलते हैं, अतः तीसरी कोटि का सत्संग उनके विचारों का सामीप्य, महापुरुषों द्वारा लिखे गए अमृतकणों का स्वाध्याय भी उसकी पूर्ति करता है | संतों के सत्संग की जब बात होती है और जब ‘प्रथम भक्ति संतन कर संग’ की व्याख्या करते हैं तो लगता हैं कि संत की परिभाषा भी होनी चाहिए | संत उन्हें कहा जाता है, जो व्यक्ति को परमात्मा का प्रकाश दिखा दें-उसे आत्मा की ओर उन्मुख कर दें, सद्गुरु से परिचय करा दें | यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे संतों को ढूँढने जंगल में ही जाया जाय , यह आपको आपके आस पास भी मिल सकते हैं आवश्यकता है उनको पहचानने की |* *आज के युग में किसी को कुछ कहना भी कभी - कभी स्वयं की मूर्खता ही प्रतीत होती है क्योंकि आज मनुष्य ने संत एवं सतसंग दोनों की रूपरेखा ही बदल कर रख दी है | नवधा भक्ति को मानने का दावा करने तथा अपने लेखों के माध्यम से उपदेश करने वाले बड़े - बड़े भक्तशिरोमणि , संतशिरोमणि आदि नवधा भक्ति की प्रथम भक्ति - सतसंग के प्रारूप को ही शायद नहीं जान पाये हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज की सामाजिकता , सामाजिक व्यवस्था एवं मनुष्यों की मानसिकता देखकर यह कहने पर विवश हो रहा हूँ कि लोग आज सज्जनों का संग करना ही नहीं चाहते | यदि उत्सुकतावश किसी समाज में जुड़कर बैठने भी लगे तो भी उनकी तुच्छ मानसिकता सतसंग को विकृत करने का ही प्रयास करती है | छोटी - छोटी बात पर व्यर्थ का वाद - विवाद कर लेने में सिद्धहस्त ऐसे लोग क्या सतसंग करेंगे और कैसे नवधा भक्ति को प्राप्त कर पायेंगे यह विचारणीय के साथ - साथ चिंतनीय भी है | किसी के उपदेश या
लेख पर वाह - वाह करने वाले लोग कुछ देर बाद ही उपदेश को भूलकर अपने सहज स्वभाव में वापस आकर विकृतियां उत्पन्न करने को प्रयासरत हो जाते हैं | विचार कीजिए जब हम नवधा भक्ति की प्रथम सीढी सतसंग को स्वयं में समाहित नहीं कर पा रहे हैं तो दूसरी - तीसरी भक्ति कैसे कर पायेंगे यह एक यक्षप्रश्न है | सतसंग का अर्थ शायद लोगों ने कथा व्याख्यान से लगा लिया है जबकि सतसंग का अर्थ हुआ श्रेष्ठजनों के वचनों को सुनकर उसमें अपना विचार भी मिश्रित किया जाय अर्थात आज के युग में विचारों का आदान - प्रदान करके हही यदि कुछ प्राप्त हो जाय तो समझो सतसंग हो गया |* *सर्वप्रथम मनुष्य को प्रथम भक्ति करने का प्रयास करना चाहिए जो कि आज के युग में मनुष्य स्थिरता के साथ नहीं कर पा रहा है | क्योंकि वह अपना अमूल्य समय व्यर्थ की बातों में गंवा रहा है |*