*हमारे सनातन साहित्यों में लिखा है ----- "गहना कर्मणो गति:" | अर्थात - मनुष्य के कर्म उसे छोड़ते नहीं हैं | यह समस्त सृष्टि उस परमपिता परमात्मा की ही अभिव्यक्ति है | यहाँ पर दिखाई देने वाली धरती, आकाश, पर्वत, पहाड़, समुद्र, वनस्पतियां एवं समस्त प्राणिजगत , यहाँ तक कि इस सृष्टि का कण-कण उसी परमपिता परमात्मा के अंग हैं | हमें हमारे जीवनकाल में प्राप्त होने वाली भौतिक,आध्यात्मिक सम्पदायें या अनेकानेक परिजन या रिश्तेदार , सगे-सम्बन्धी या मित्रगण , हमारा परिवेश यह सब हमारे कर्मों की ही अभिव्यक्ति है | इस संसार में हमारे पास जो भी है वह सब हमारे पूर्व के कर्मों के अनुसार ही प्राप्त हुआ है | हमारे पूर्व के कर्म हीं भाँति-भाँति के रूप धारण करके हमें प्राप्त होते हैं | हमारे द्वारा किये गये एक-एक कर्म अनेक जन्मों तक हमारा पीछा नहीं छोड़ते जब तक कि हम उसको भुगत नहीं लेते हैं | बाबा जी मानस में लिखते हैं ------ "करम प्रधान विश्व रचि राखा ! जो जस करइ सो तस फल चाखा !!" अर्थात कर्मभोग भोगे बिना जीव को मुक्ति नहीं मिल सकती | जिस प्रकार इंद्रपुत्र जयंत भगवान श्रीराम द्वारा संधान किये वाण से बचने के लिए तीनों लोकों भागा परंतु उसके किये गये कुकृत्य का फल देने के लिए पीछे लगा हुआ पीछा नहीं छोड़ता और अंततोगत्वा उसको उसका परिणाम एक आँख गंवाकर भुगतना पड़ा | इसी प्रकार जीव चाहे जितना भागने का प्रयास करे परंतु पूर्व में उसके द्वारा किये गये कर्मों को भुगतना ही पड़ेगा |* *इस सकल सृष्टि में हम जहाँ कहीं भी रहते हों हमारे कर्म हमारा पीछा करते हुए हम तक पहुँच ही जाते हैं | चाहे कोई राजा हो चाहे भिखारी , चोर , साधू , सन्यासी किसी के भी द्वारा किये गये कर्म तब तक उसका पीछा नहीं छोड़ते जब तक जीव उसका भोग नगीं भोग लेता | इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि यह कर्मभोग हमें इसी जन्म में भोगना पड़े | इसके लिए हमें चाहे सैकड़ों जन्म लेने पड़ें परंतु उस कर्मभोग को भोगना ही पड़ेगा | अनेक धर्मशास्त्रों का पठन-पाठन करने के बाद यही परिणाम मिलता गै कि जन्म-जन्मान्तरों तक हमारे कर्म हमारा पीछा नहीं छोड़ते हैं | अत: हमें सदैव शुभ कर्म करते हुए अशुभ कर्मों का त्याग करना चाहिए | अब प्रश्न यह है कि हम यह कैसे जानें कि कौन से कर्म शुभ हैं और कौन से अशुभ | हमारे मार्गदर्शक बताते हैं कि ---- जो कर्म स्वयं को और दूसरों को भी सुख,शांति प्रदान करते हुए हमें कर्मबंधन में न बाँधें वे ही शुभ कर्म हैं तथा जो स्वयं के साथ - साथ दूसरों को भी दु:ख दें तथा हमें कर्मबंधन में बाँधें वही अशुभ कर्म कहे गये हैं | अत: शुभ कर्म करते-करते हमारे लिए यह भी आवश्यक है कि हम "निष्काम कर्म" भी करते रहें | निष्काम कर्म का
ज्ञान देते हुए गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण कहते हैं ---- हे अर्जुन ! तू सदैव आसक्ति से रहित होकर ही कर्म कर ! क्योंकि आसक्ति रहित कर्म करता हुआ ही मनुष्य परमात्मा को प्राप्त कर सकता है | अशुभ कर्मों से बचने का यही एकमात उपाय है | यही एकमात्र ऐसा मार्ग है जिस पर चलकर हम अपने लोक - परलोक दोनों संवार सकते हैं |* *इस प्रकार जन्म - जन्मान्तरों तक कर्म हमारा पीछा नहीं छोड़ते हैं | सचमुच कर्मों की गति बड़ी गहन है | शायद इसीलिए लिखा गया है ---- "गहना कर्मणो गति:" !*