!! भगवत्कृपा हि केवलम् !!*सनातन
धर्म में परमपिता परमेश्वर को सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान कहा गया है | परमात्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए पुरुषसूत्र में कहा गया है ----- "सहस्रशीर्षा: पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रपात्" ! अर्थात उस परम पुरुष के सहस्रों शीश , आँखें एवं पैर हैं , वह परमात्मा सर्वव्यापक है | ईश्वर जो सृष्टि का कर्ता-धर्ता है, जो पूरे ब्रह्मंड में एक सा समाया है , जिसकी सत्ता सृष्टि के कण – कण में है जिसे वेद में नेति -नेति कहा गया है | अगर हम नेति – नेति शब्द पर गहराई से विचार करें तो जो अर्थ सामने आता है, न इति, न इति ..अर्थात जिसका कोई आदि, मध्य और अंत नहीं है | जो अनंत है , अखंड है , अनाप्त है और पूरी सृष्टि जिसमें समाई है | ऐसे ईश्वर के विषय में हम बहुत कुछ यूँ ही पढ़ते रटते जाते हैं | पर इस वास्तविकता को समझने की कोशिश नहीं करते कि जो यह सब कुछ ईश्वर के विषय में कहा जा रहा है क्या ये सच है ? इन बातों को समझने के लिए हमें इनकी गहराई को जानना आवश्यक हो जाता है | वेदों से लेकर आज तक जो भी ईश्वर के विषय में कहा गया है उसमें एक बात तो सत्य कही गयी है कि “ईश्वर सर्व व्यापक है” | श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद हमें जीवन के गूढ़ रहस्य समझाने का प्रयास करते हैं , श्रीकृष्ण जी अर्जुन को अपने विषय में समझते हुए कहते हैं कि :---- "न मे विदु : सुरगणा : प्रभवं न महर्षय: | अहमादिर्हि देवानां महर्षिणा च सर्वशः || अर्थात:-; हे अर्जुन ! न तो देवता गण मेरी उत्पत्ति के विषय में जानते हैं और न ऐश्वर्य को जानते हैं और न ही महर्षिगण मेरी इस महिमा को जानते हैं , क्योँकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियो का भी कारण हूँ अर्थात उनका उद्गम भी मुझसे हुआ है | इसलिए तुम्हें विचलित होने कि जरुरत नहीं है | इस प्रकार स्वयं (ईश्वर) की व्यापकता को स्वयं योगेश्वर श्री कृष्ण प्रमाणित करते हैं |* *आज हमारे पास ईश्वर को जानने के माध्यम के रूप चार वेद , छह शास्त्र , अठारह पुराण , अनगिनत उपनिषद व अनेकानेक ग्रंथ उपलब्ध हैं फिर भी हम भ्रमित हो रहे हैं | हम उस सर्वव्यापक ईश्वर की अनन्त कथाओं को किसी एक ग्रंथ के माध्यम से ही जान लेना चाहते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" आज के विद्वानों की दशा देख रहा हूँ जो सिर्फ इसलिए परेशान रहते हैं कि उस परमात्मा की कथाओं में भिन्नता क्यों हैं ?? किसी ग्रंथ में यह लिखा है तो किसी ग्रंथ में कुछ दूसरा | इसी विषय में ऐसे विद्वान व्यर्थ की जिज्ञासा लिए विचरण करते रहते है | विचारणीय तथ्य यह है कि जिस ईश्वर को सर्वव्यापक कहा गया है उसकी लीलायें भी अनन्त ही होंगी | हम उसकी लीलाओं को किसी एक ग्रंथ में समाहित नहीं कर सकते है | मनुष्य ३० - ३५ वर्ष का हो जाने पर स्वयं अपने जन्म से लेकर वर्तमान आयु तक के समस्त घटनाक्रम को नहीं याद रख पाता और उस ईश्वर की लीलाओं को एक ग्रंथ का आधार लेकर जानने की इच्छा रखता है | तो क्या यह सम्भव है ??? मेरा मानना है कि किसी एक ग्रंथ को माध्यम बनाकर नहीं अपितु अनेकानेक ग्रंथों का सम्मिश्रण कर लेने के बाद भी हम उस ईश्वर को एवं उसकी लीलाओं को जानने में सक्षम नहीं हो सकते | कहाँ क्या लिखा है , लेखाकारों ने ऐसा क्यों लिखा ?? इनके विचारों या लेखों में भिन्नता क्यों है ?? यही आज के विद्वानों को कचोटता रहता है | जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए | क्योंकि जो अनन्त है उसकी लीलाएं / कथायें भी अनन्त ही होंगी |* *गोस्वामी तुलसीदास जी ने सिद्ध कर दिया है कि :-- "ईश्वर सर्व भूतमय अहई" ! फिर उन्होंने लिख दिया है कि :- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता" फिर हमें शंकालु न होकर उन कथाओं सार समझने का प्रयास करना चाहिए |*