*मानव जीवन में जितना महत्व अन्न , वस्त्र एवं मकान का है उससे कहीं अधिक महत्व है सतसंग का | सतसंग मनुष्य को परिमार्जित करता है | अक्सर लोग सतसंग का अर्थ कथा - प्रवचन आदि से लगा लेते हैं | क्या इसे सही माना जा सकता है | शायद नहीं | सतसंग का सीधा सा अर्थ है सज्जनों का संग करना , अब जब मनुष्य सज्जनों का संग करेगा तो उसमें दुर्जनता तो आयेगी नहीं आयेगी सज्जनता ही | सनातन के किसी भी विषय पर विचारों के आदान - प्रदान को भी सतसंग ही कहा गया है | सतसंग के विषय में हमारे सनातन साहित्यों में लिखा गया है कि ---- "दूरीकरोति कुमतिं विमलीकरोति, चेतश्र्चिरंतनमधं चुलुकीकरोति । भूतेषु किं च करुणां बहुलीकरोति, संगः सतां किमु न मंगलमातनोति ॥" अर्थात --सतसंग कुमति को दूर करता है, चित्त को निर्मल बनाता है । लंबे समय के पाप को अंजलि में समा जाय ऐसा बनाता है, करुणा का विस्तार करता है; सत्संग मानव को कौन सा मंगल नहीं देता ? इसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी मानस में सतसंग को ही प्रमुखता दी है | यह सत्य भी है कि मानव जीवन में सतसंग का प्रमुख स्थान है |* *जिस प्रकार की संगति होती है मनुष्य वैसा ही बनता चला जाता है | यदि सज्जन की संगति में रहेंगे तो सज्जनता आयेगी और जब मनुष्य दुर्जन की संगति रहता है तो दुर्जनता ही आयेगी | इसका उदाहरण तुलसीदास जी ने भी दिया है कि जब रास्ते की धूल पवन की संगति में आती है तो वह आकाश तक उड़ जाती है , और जब वही धूल नीच जल की संगति में आ जाती है तो वह कीचड़ का रूप धारण कर लेती है और लोग उससे बचने का प्रयास करते रहते हैं , यह प्रभाव संगति का ही होता है | विचार कीजिए कि मिसरी के साथ लगे हुए बाँस की कीमत भी मिसरी के बराबर ही बाजार में लग जाती | निष्प्रयोज्य बाँस के टुकड़े भी मिसरी की संगत में आकर उसी दाम में बिक जाते हैं | मनुष्य सदैव से अच्छा बनना चाहता है , परंतु वह नकारात्मक बन जाता है इसका सीधा सा अर्थ होता है कि वह ऐसे लोगों की संगति कर रहा है जो स्वयं तो नकारात्मक होते ही हैं और साथ में वे दूसरे को भी नकारात्मक एवं त्याज्य (समाज के विपरीत) मार्ग पकड़ा देते हैं | अब यह प्रत्येक मनुष्य की स्वयं की जिम्मेदारी या सजगता होनी चाहिए कि वह कैसी संगति कर रहा है और इसका परिणाम क्या होगा |* *मनुष्य को सदैव सतसंग करते रहना चाहिए | क्योंकि सतसंग ही ऐसा माध्यम है जो जीवन में व्याप्त अंधकार को नष्ट करके प्रकाश कर सकता है |*