*इस पृथ्वी पर सकल सृष्टि में मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ माना गया है | मनुष्य का जीवन उसकी श्वांसों पर निर्भर है , जब तक श्वांस चल रही है तब तक उसे जीवित माना जाता है और श्वांस बन्द होते ही वह मृतक घोषित कर दिया जाता है | क्या श्वांसे बन्द होने पर ही मनुष्य की मृत्यु होती है ????? शायद नहीं | कुछ मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृतक के समान रहते हैं | ऐसा बाबा तुलसी जी ने एक जगह संकेत भी किया है कि चौदह प्रकार के मनुष्य जीवित रहते हुए भी मृतक के समान ही रहते हैं | प्रत्येक मनुष्य जो खाता,पीता, सोता और साँस लेता है, जीवित ही माना जाता है। पर सच्चे जीवन की दृष्टि से यह व्याख्या बहुत अधुरी और संकुचित है । यदि मानव-जीवन का अर्थ इतना हो मान लिया जाय तो फिर उसमें तथा अन्य पशु-पक्षियों में बहुत कम अन्तर रह जाता है । मनुष्य की सर्वाधिक श्रेष्ठता तो विवेक-बुद्धि और परोपकार -प्रवृत्ति में ही है । इस प्रकार व्यवहार करने लगे कि उससे अपना, आस-पास वालों का और समस्त
समाज का हित साधन हो,तभी उसका जीवन सार्थक समझा जा सकता है।* *पर आज मानव समाज का एक बहुत बड़ा भाग सही दिशा को भूलकर उल्टी चाल चलने लग गया है ।सब जगह स्वार्थ, आपाधापी, अस्वाभाविक संघर्ष, नृशंसता के ही दर्शन हो रहे है। प्रकृति से बड़े -बड़े वरदान पाकर भी मनुष्य सुख शांति को खोता जा रहा है और उसकी व्यग्रता तथा व्याकुलता बढ़ रही है | मनुष्य जब तक अपने-पराये के भेदभाव को कम करके अन्य लोगों का भी ख्याल न रखेगा तब तक वह वास्तविक सुख के दर्शन नहीं कर सकता। शास्त्रों में कहा गया है कि समत्व-भावना ही समस्त साधन,भजन और योग का अन्तिम लक्ष्य है। अतएव जब मनुष्य अनुचित काम, क्रोध,मद,लोभ को त्याग कर सदभावना,सहयोग,प्रसन्नता,उल्लास,उत्साह,आशा, मैत्री आदि सदगुणों का जीवन में समावेश करता है तभी यह समझा जा सकता है कि वह जीवन जीने के सही मार्ग को समझ गया और तदनुसार आचरण कर रहा है।* *जीवन विद्या का ऐसा ज्ञाता लोक-परलोक में कभी दु:खी नहीं हो सकता।*