*इस असार संसार में आने के बाद मनुष्य जैसे खो जाता और उसकी एक
यात्रा प्रारम्भ हो जाती है | मनुष्य द्वारा नित्यप्रति कुछ न कुछ खोजने की प्रक्रिया शुरू होती है | मनुष्य का सम्पूर्ण जीवनकाल एक खोज में ही व्यतीत हो जाता है | कभी वह वै
ज्ञान िक बनकर नये - नये प्रयोगों की खोज करता है तो कभी विद्वान बनकर नये - नये मंत्रों - रहस्यों की खोज करता रहता है | समस्त मानव जाति जो वस्तु प्रमुखता से खोजती है वह है परमात्मा एवं स्वयं के जीवन का रहस्य | मनुष्य बड़े - बड़े तीर्थों एवं मन्दिरों में जाकर परमात्मा को खोजने का प्रयास करता रहता है | कुछ मनस्वियों ने परमात्मा को प्राप्त करने या उनको जानने के लिए हिमालय का भी आश्रय लिया | परंतु क्या उन्हें परमात्मा मिले या उनके विषय में वे विधिवत् जान पाये ???? मेरा तो विचार यह है कि परमात्मा को जानने के लिए कहीं भी जाने की आवश्यकता ही नहीं है | कुछ भी खोजने के पहले मनुष्य को स्वयं को खोजना चाहिए | क्योंकि जो स्वयं को जान गया उसके लिए संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं रह जाता | अर्थात स्वयं को जान लेने के बाद कोई कामना शेष रह जाय यह असम्भव है | मनुष्य को सर्वप्रथम स्वयं को जानना चाहिए कि मैं कौन हूँ ?? मैं कहाँ से और क्यों आया हूँ ??? मेरा परम उद्देश्य क्या है ??? इन्हीं तीन - चार विन्दिओं में सम्पूर्ण जीवन का सार समाहित है | जिसने यह जानने का प्रयास करके जान लिया उसके लिए कुछ भी खोजना शेष नहीं रह जाता |* स्वयं को जानकर व समझकर ही मनुष्य प्रत्येक सफलता की तरफ अग्रसर हो सकता है | ऐसा इसलिए,क्योंकि हम सभी मनुष्य उस एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं | आज हर मनुष्य भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर, एक तत्व से दूसरे तत्व की ओर | मनुष्य शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है | इस भागदौड़ में मनुष्य ने स्वयं के साथ संबंधों को भी तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है | यदि आप अपने आसपास ध्यान देंगे, तो लगभग सबमें यही बात नजर आएगी | प्रत्येक मनुष्य स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता चला जा रहा है | वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन ? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है | आज आवश्यकता है, इस झंझावात से निकलने की, स्वयं के अस्तित्व को समझने की | परिवर्तन की इस सतत प्रक्रिया में स्थिर होने की |¶यात्रा हो परंतु शून्य से महाशून्य की, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की, अंधकार से प्रकाश की, असत्य से सत्य की | स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे |* *आज आवश्यकता है कि हम जग जाएं | स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें | हमारा ध्यान दुनिया में है, परंतु स्वयं के अंदर छिपी विराटता में नहीं | स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं |*