*सनातन
धर्म में प्राय: तीन विषय चर्चा का केन्द्र बनते हैं :-
धर्म , दर्शन , अध्यात्म ! इनमें सबका मूल धर्म ही है | धर्म क्या है ? धर्म का रहस्य क्या है ? इस विषय पर प्राय: चर्चायें होती रहती हैं | सनातन धर्म में प्रत्येक मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ बताये गये हैं :- धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष | इनमें से प्रथम धर्म ही कहा गया है | धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा गया गया है :- "यतो ऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः !" अर्थात :- धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है | धर्म का अर्थ है धारण करने वाला , जो सबको धारण किये हुए है या जिसे सबको धारण करना चाहिए | यथा :- "धारयते इति धर्म" ! अब विचारणीय यह है कि धारण क्या किया जाय ?? धारण करने योग्य क्या है इसका वर्णन हमारे धर्मग्रंथों में मिलता है | सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, क्षमा आदि | कुछ लोगों का मत हैं कि धर्म के नियमों का पालन करना ही धर्म को धारण करना है | जैसे ईश्वर प्राणिधान, संध्या वंदन, श्रावण माह व्रत, तीर्थ चार धाम, दान, मकर संक्रांति-कुंभ पर्व, पंच यज्ञ, सेवा कार्य, पूजा पाठ, धर्म प्रचार आदि | परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि उपरवर्णित सभी कार्य व्यर्थ है जब तक मनुष्य सत्य को नहीं अपनाता | सत्य को अपना लेने से अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौचादि सभी स्वत: ही मनुष्य में आ सकते हैं | अत: यह कहा जा सकता है कि सत्य ही धर्म है और धर्म ही सत्य है | जो सत्य से विमुख होकर अन्य धार्मिक कृत्यों को करता है वह समझ लो कि धार्मिक नहीं वरन् अधार्मिक ही है | सत्य क्या है ? सत्य है नारायण :- "सत्यनारायण" , सबसे सुंदर सत्य है शिव इसीलिए कहा गया है :- सत्यम् , शिवम् , सुन्दरम् | जिसने सत्य को अपना लिया वही धार्मिक कहा जा सकता है ! क्योंकि एक सत्य को अपनाने मात्र से शेष सभी सद्गुण मनुष्य में आने लगते हैं |* *आज के बदलते युग में धर्म का अर्थ भी बदल सा गया लगता है | यदि महाराज मनु द्वारा मनु स्मृति में बताये गये धर्म के दस लक्षणों का सन्दर्भ लिया जाय तो यह किसी विरले में ही देखने को मिलता है | आज के धर्म एवं धर्माधिकारियों का वर्णन पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने विस्तृत ढंग से किया है | सत्य का पालन किस तरह किया जा रहा है मानस में बताया गया है :- जो कह झूठ मसखरी नाना ! सोइ ज्ञानी गुनवंत बखाना !! यह सभी पर तो नहीं लागू होता परंतु यह भी सत्य है कि अधिकांश लोग ऐसे ही हो गये हैं कि धर्म की व्याख्या अपने - अपने अनुसार करने लगे हैं | सत्य का पथ बताने वाले सभी हैं परंतु सत्पथ के पथिक बहुत कम ही मिलते हैं | कारण है कि दूसरों को उपदेश देना सरल है परंतु स्वयं पालन करना बहुत है | आज संसार में अनेकों तथाकथित धर्म देखे जा सकते हैं | परंतु ये धर्म नहीं सम्प्रदाय मात्र हैं | धर्म की विवेचना यदि की जाय तो धर्म ही पुरूषार्थ हैं | चरित्र निर्माण में सहायक धर्म, अकुलीन को कुलीन, भीरू को वीर, अपावन को पावन रूप में निरूपित कर उचित-अनुचित कर्त्तव्य का बोध कराता हैं | धर्म ही मनुष्य को धारण करता है किसी को कोई कार्य करना धर्म संगत है,उस स्थान में धर्म शब्द से कर्त्तव्य शास्त्र का अर्थ पाया जाता हैं | अर्थात् धर्म का सार सुनो, सुनो और धारण करों | अपने को अच्छा न लगे वह दूसरो के साथ व्यवहार न करों | परंतु आज जो स्वयं को अच्छा लगे वही मनुष्य करना और सुनना चाहता है |* *इस तरह श्रेय पथ पर चल कर ,श्रेष्ठ चिन्तन का आचरण निर्धारित करने वाला धर्म एक मात्र ऐसा आधार शास्त्र है जिसके द्वारा वैयक्तिक व सामाजिक उत्कृष्टता का उचित मापदंड प्रकट हो कर नियमपूर्ण अनुशासित, संयमपूर्ण जीवन का संतुलन बना रहता हैं |*