*संसार में मनुष्य भगवान की कृपा या स्वयं भगवान को ही प्राप्त करने के लिए अनेकों साधनों का आश्रय लेकर उद्योग किया करता है | हमारे पुराण एवं शास्त्रों में भगवान को प्राप्त करने के अनेकों मार्ग बताये गये हैं | मनुष्य भगवान के नाम , रूप , लीला एवं धाम का अवलम्ब लेकर मुक्ति पाना चाहता है | नाम का संकीर्तन करके , रूप का दर्शन करके , लीला को श्रवण करके एवं भगवान की पावन पुरियों (धाम) में निवास (कल्पवासादि) करके मनुष्य भगवान का सामीप्य पाना चाहता है | आज के भौतिक युग में पूजा - पाठ , व्रत आदि तो मनुष्य करता ही अनेकों प्रकार की भक्ति भी करता है | अनेक लोगों ने भव्य मंदिरों का निर्माण भी करवाया और उन मंदिरों में आये दिन भगवत्कथायें भी होती रहती हैं | परंतु इतना सब करने के बाद भी मनुष्य स्वयं को दुखी ही दर्शाता रहता है | मनुष्य के दुखी रहने का कारण यह है कि मनुष्य के द्वारा उपरवर्णित कर्म तो किये जा रहे हैं , परंतु अधिकतर यह सारे कर्म दिखावे के लिए ही लोग करने लगे हैं | बड़ी - बड़ी कथाओं का आयोजन करने वाले धनाढ्य स्वयं बैठकर उन कथाओं को नहीं सुन पाते हैं | क्योंकि वे तो व्यनस्थाओं का हवाला देकर सतसंग का त्याग करते रहते हैं | यह उनका परम दुर्भाग्य है | संसार का प्रत्येक मनुष्य न तो भगवान के मंदिर बनवा सकता है और न ही वह भगवान की पुरियों में पहुँचने का सामर्थ्य रखता है तो भगवान को प्राप्त करने का सबसे सरल एवं बिना धन लगाये कौन सा उपाय है ?????? इसके विषय में हमारे सभी पुराणों में बताया गया है कि बिना धन एवं मेहनत के भगवान को या उनकी भक्ति को प्राप्त करने का सबसे सरल मार्ग है सतसंग |**सतसंग करके या सतसंग का सहभागी बनके मनुष्य भगवान का सामीप्य प्राप्त करता रहा है | आप विचार कीजिए कि आप कहीं सतसंग या कथा में तीन घंटे का समय दिये तो उस तीन घंटे में एक क्षण ऐसा भी आता है जब आपको कथा प्रसंग के अनुरूप भगवान से समीपता का अनुभव अवश्य होता है | सतसंग की महत्ता से हमारे समस्त धर्मग्रंथ पूरित हैं | सतसंग के विषय में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं उद्धव जी से कहते हैं ----- "न रोधयति मां योगो , न सांख्यं धर्म एव च | न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो नेष्टापूर्तं न दक्षिणा ||" ---- भगवान कहते हैं कि -- संसार में जितनी आसक्तियां हैं उन्हें "सतसंग" नष्ट कर देता है | यही कारण है कि जिस प्रकार सतसंग मुझे वश में कर लेता है वैसा साधन न योग है न सांख्य , न धर्मपालन और न ही स्वाध्याय | तपस्या , त्याग इष्टापूर्त और दक्षिणा से भी मैं वैसा नहीं प्रसन्न होता जितना सतसंग से | व्रत , यज्ञ , वेद , तीर्थ , और यम नियम भी सतसंग के समान मुझे वश में करने की सामर्थ्य नहीं रखते |" भगवान द्वारा बताये गये सर्वोत्तम साधन सतसंग का इतना महत्व है कि इस सकल सृष्टि में देवता , दानव , यक्ष , किन्नर , गन्धर्वों एवं मनुष्यों में भी दीन हीन व्यक्ति ने भी सतसंग के ही माध्यम से "भगवत्कृपा" प्राप्त की है | मानस में कविकुल शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने सतसंग की व्यापक एवं रोचक व्याख्या करते हुए बताते हैं कि --- बिना सतसंग किये विवेक का विस्तार नहीं हो सकता , और सतसंग उसी को सुलभ हो पाता है जिस पर भगवान की महती कृपा होती है | किसी संत ने कहा है कि --- जब मनुष्य के करोड़ों जन्मों के किये पुण्यकर्म इकट्ठे होकर उदित होते हैं तो मनुष्य के हृदय की मलिनता का नाश होता है और मनुष्य की रुचि सतसंग में होती है |* *आज मनुष्य की सबसे बड़ी समस्या यही है कि वह अपने धन , पद और
ज्ञान के अहंकार में सतसंगरूपी सरिता में स्नान नहीं करना चाहता और दिखावा दुनिया भर का करता है | यदि वास्तव में प्रभु का समीप्य पाना है तो सतसंग का मार्ग पकड़ना ही होगा |*