!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! हमारे ऋषियों - महर्षियों/महापुरुषों ने प्रारम्भ से
अध्यात्म का मार्ग चुना एवं सभी को आध्यात्मिक बनाने का प्रयास करते रहे | प्रत्येक व्यक्ति आध्यात्मिक बनना भी चाहता है | आध्यात्मिक बनने के लिए सर्वप्रथम आवश्यकता यह जानने की है कि आखिर "अध्यात्म" है क्या ?? अध्य + आत्म = स्वयं के विषय में अध्ययन करना , स्वयं के विषय में चिंतन करके जान लेना ही अध्यात्म है | गीता में अर्जुन ने योगेश्वर श्री कृष्ण से पूछा था कि -- हे केशव ! अध्यात्म क्या है ?? इसका उत्तर देते हुए भगवान कहते हैं --- "स्वभावो अध्यात्म उच्यते" अर्थात मनुष्य या अन्य किसी भी वस्तु का मूलभाव (स्वभाव) ही अध्यात्म है | पूजा - पाठ , सतसंग या प्रवचन सुनने को भक्ति करना , सतसंग करना तो कहा जा सकता है परंतु अध्यात्म नहीं | अध्यात्म का प्रथम सोपान है स्वयं के विषय में जिज्ञासु होना , जब मनुष्य स्वयं को जानने के प्रयास करने लगता है तो उलझता जाता है , उसके हृदय में नित्य नवीन जिज्ञासायें उत्पन्न होने लगती हैं | इन्बीं जिज्ञासाओं का समाधान करने में ही स्वयं के विषय में
ज्ञान बढता जाता है और मनुष्य अध्यात्म पथ पर अग्रसर हो जाता है | यद्यपि प्रत्येक मनुष्य आध्यात्मिक पथ का पथिक बन सकता है परंतु वह साहस नहीं कर पाता | अध्यात्म में प्रवेश करने के लिए , स्वयं को जानने के लिए साहस की महत्वपूर्ण भूमिका होती है | आज अध्सात्म का अर्थ ही बदल गया है | आज अध्यात्म सुंदर शब्दों पर टिक गया है | जो जितना अध्यात्म के गूढ़तत्वों को अलंकृत शैली में बोल सके, वह उतना ही बड़ा आध्यात्मिक व्यक्ति माना जा रहा है | फिर इसके एक भी तत्व को भले ही अनुभव न किया गया हो | वस्तुत: अध्यात्म ऐसा है नहीं बल्कि आज के विद्वानों द्वारा इसे ऐसा कर दिया गया है | अध्यात्म जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली का समन्वय है | यह जीवन को समग्र ढंग से न केवल देखता है, बल्कि इसे अपनाता भी है | आज कई लोग ऐसे हैं, जो अध्यात्म से नितांत अनभिज्ञ हैं, लेकिन वही अध्यात्म की
भाषा बोल रहे हैं | यह मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि आध्यात्मिक भाषा बोलने वाले कुछ लोगों का जीवन अध्यात्म से नितांत अपरिचित, परंतु भौतिक साधनों और भोग-विलासों में आकंठ डूबा हुआ मिलता है | आज के तथाकथित कई अध्यात्मवेत्ता भय, आशंका, संदेह, भ्रम से ग्रस्त हैं, जबकि अध्यात्म के प्रथम सोपान को इनका समूल विनाश करके ही पार किया जाता है | चेतना की चिरंतन और नूतन खोज ही इसका प्रमुख कार्य रहा है, परंतु चेतना के विभिन्न आयामों को खोजने के बदले इससे जुड़े कुछ तथाकथित लोगों ने इसे और भी मलिन और संकुचित किया है | अध्यात्म को वर्तमान स्थिति से उबारने के लिए आवश्यक है कि इसे प्रयोगधर्मी बनाया जाए | अध्यात्म के मूल सिद्धांतों को प्रयोग की कसौटी पर कसा जाए | आध्यात्मिकता के बहिरंग और अंतरंग दो तत्व जीवन में परिलक्षित होने चाहिए | संयम और साधना ये दो अंतरंग तत्व हैं और स्वाध्याय व सेवा बहिरंग हैं | अंतरंग जीवन संयमित हो और तपश्चर्या की भट्टी में सतत गलता रहे | आज भी वास्तविक आध्यात्मिक विभूतियां विद्यमान हैं, परंतु उनके पदचिह्नों पर चलने का साहस करने वालों की कमी है | यही वह परिष्कृत अध्यात्म है, जो कहीं बाहर नहीं, हमारे ही अंदर है | हमें इसी की खोज करनी चाहिए |