!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! आदिकाल से
भारत देश में सतसंग , चर्चा - परिचर्चा का बड़ा महत्व रहा है | इन सतसंग कथाओं , परिचर्चाओं मे लोगों की रुचि रहा करती थी , एक विशाल जन समूह एकत्र होकर इन भगवत्कथाओंं (सतसंग) को बड़े प्रेम से श्रवण करके अपने जीवन में उतारने का प्रयास करता था तब भारत को विश्वगुरु की पदवी प्राप्त हुई थी | गाँवों में यदि कहीं ऐसा कोई आयोजन हो जाता था तो लोग बिना बुलाये पहुँच जाया करते थे ! यदि विछावन की व्यवस्था है तो ठीक नहीं तो वैसे ही बैठकर सतसंग का आनंद लिया करते थे | कुछ लोग तो अपने घर से भी बिछावन की व्यवस्था करके ले जाया करते थे | क्योंकि प्राचीनकाल में न तो इतनी प्रगति हुई थी और न ही इतनी व्यवस्थायें ही उपलब्ध थीं | परंतु उस समय इन सतसंगों में रुचि एवं आपसी सामंजस्य व मानवता प्रचुर मात्रा में थी | लोग अपने
धर्म , देश , इतिहास व पुराणों के आख्यानों को जानने - समझने के लिए लालायित रहा करते थे | उनकी यही लालसा सतसंग को दिव्यता प्रदान करती थी , और उस समय के अनपढ लोगों के पास इतना
ज्ञान होता था कि वे स्वयं लोगों को शिक्षा दिया करते थे | इस ज्ञान का स्रोत यही सतसंग एवं चर्चा - परिचर्चायें थीं | लोग प्रतिप्रश्न को नकारात्मकता से न लेकर उस पर आत्ममंथन किया करते थे | तब वे समाज के मार्गदर्शक बनकर उच्च भूमिका निभाते थे | आज समस्त व्यवस्थायें उच्चता को पार कर रही हैं | आज के लोग इन सतसंग कथाओं या चर्चाओं में भाग ही नहीं लेना चाहते | यदि कहीं कोई सतसंग कथा का आयोजन है तो प्रथम तो लोग निमंत्रण के बिना जाना ही नहीं चाहते और यदि चले भी गये तो सबसे पहले बैठने की व्यवस्था देखते हैं , क्योंकि उन्हें अमूल्य सतसंग की अपेक्षा अपने मूल्यवान वस्त्रों के गंदे हो जाने का भय रहता है | आज के लोगों में इन सतसंगों के प्रति अरुचि सी हो गयी है | यही कारण है कि आज के लोग अपने विषय में , अपने धर्म के विषय में एवं अपने इतिहास के विषय में कुछ भी नहीं जानते हैं | आज मनुष्य ने सब कुछ प्राप्त करने का प्रयास करके सफल भी हुआ है परंतु जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है वह मनुष्यता , आपसी सामंजस्य व प्रेम खोता चला जा रहा है | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" चुनौतीपूर्वक घोषणा करता हूँ कि आज के पढे - लिखे लोग पूर्व के अनपढ (बुजुर्गों) की अपेक्षा कुछ विषयों में शायद शून्य ही हैं क्योंकि वे कभी सतसंग आदि में जाकर इन गूढ विषयों को सुनने एवं जानने का प्रयास ही नहीं किया | आज का मनुष्य सब कुछ आधुनिक शिक्षा के माध्यम से पाना चाहता है जो कि कठिन ही नहीं वरन् असम्भव है | आज लोग सतसंग से पलायन करके अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं | सतसंग करने का अर्थ यह कदापि नहीं है कि आप साधु हो जायं , आप संत बिल्कुल न हों परंतु अपने विषय में ज्ञान तो आपको होना ही चाहिए | और आपको यह ज्ञान सतसंगों से ही प्राप्त हो पायेगा | आज की चकाचौंध की दुनिया में दूसरे के विषय में जानने की जिज्ञासा सबको ही रहती है , परंतु कभी स्वयं को जानने का प्रयास करता हुआ आज कोई नहीं दिख रहा है | पतन का यही कारण है | यदि सम्मानपूर्वक समाज में स्थापित होना है तो यह आवश्यक है कि प्रत्येक मनुष्य स्वयं व स्वयं के धर्म के विषय में जानकारी रखे अन्यथा ऐसे ही पतित होते चले जायेंगे |