*सनातन साहित्यों में मनुष्यों के लिए चार पुरुषार्थ बताये गये हैं :-
धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष | इनमें से अन्तिम एवं महत्वपूर्ण है मोक्ष , जिसकी प्राप्ति करना प्रत्येक मनुष्य का लक्ष्य होता है | मोक्ष प्राप्त करने के लिए भगवत्कृपा का होना परमावश्यक है | भगवत्कृपा प्राप्त करने के लिए भक्तिमार्ग का अनुसरण करना पड़ेगा | भक्ति करने के लिए हमारे यहाँ "नवधा भक्ति" का निरूपण किया गया है :- "श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ! अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् !! अर्थात :- भगवतलीलाओं को सुनना , कीर्तन करना , सुमिरन करना , चरणसेवा , अर्चन , वंदन , दास्य , साख्य एवं आत्म निवेदन | इन नौ प्रकार की भक्ति में एक भी यदि कर लिया जाय तो मनुष्य मोक्ष को प्राप्त कर सकता है | परंतु किसी भी भक्तिमार्ग का पथिक बनने के लिए सर्वप्रथम "गुरुकृपा फिर "भगवत्कृपा" की आवश्यकता होती है | जिस प्रकार गुरुकृपा के बिना "भगवत्कृपा" नहीं प्राप्त हो सकती , ठीक उसी प्रकार जब तक मनुष्य "आत्मकृपा" नहीं करेगा तब तक न तो गुरुकृपा मिलेगी और न ही "भगवत्कृपा" | विचारणीय है कि "आत्मकृपा" क्या है और कैसे प्राप्त हो सकती है ?? आत्मकृपा का अर्थ है स्वयं के ऊपर कृपा करना , जब मनुष्य स्वयं के ऊपर कृपा करने लगता है तो गुरुकृपा एवं "भगवत्कृपा" सरलता से प्राप्त हो सकती है | सबसे कठिन है "आत्मकृपा" | मोह - मायादि विकारों से घिरा मनुष्य स्वयं को इन कषायों से बचाकर यदि सत्कार्य करने लगे तो समझ लो "आत्मकृपा" का प्रारम्भ हो गया |* *आज के चकाचौंध भरे भौतिक युग में अधिकतर लोग गुरुकृपा एवं भगवत्कृपा तो प्राप्त करना चाहते परंतु वे स्वयं के ऊपर कृपा (आत्मकृपा) नहीं करना चाहते | बड़े - बड़े मंदिरों को बनवाकर भाँति - भाँति के दान करने वाले अनेक दानवीर आज भी हैं परंतु प्राय: देखा जाता है कि अपने नाम के लिए ये दान करने वाले किसी दीन - हीन भिखारी को अपने दरवाजे से दुर्वचन कहकर भगा देते हैं | तो क्या इसे यह मान लिया जाय कि ऐसे लोगों को भगवत्कृपा प्राप्त हो जायेगी | मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि जब तक मनुष्य अपने भीतर पल रहे काम , क्रोध , मद , लोभ , मोह , मात्सर्य , मिथ्याभिमान आदिक शत्रुओं से स्वयं को नहीं बचायेगा तब तक स्वयं पर कृपा "आत्मकृपा" नहीं कर पायेगा | नवधा भक्ति में प्रथम है "श्रवणं" अर्थात भगवान के लीलानुवादों को प्रेमपूर्वक सुनना | कलियुग में नाम का ही प्रमुख स्थान है :- "कलियुग केवल नाम अधारा" कुछ न करके यदि मनुष्य सिर्फ नाम सुमिरन करता रहे एवं सतसंग तथा भगवत्कथाओं का रसास्वादन करता रहे तो भीतर पल रहे षडरिपुओं का विनाश स्वमेव होना प्रारम्भ हो जायेगा | यही है "आत्मकृपा" | जब मनुष्य आत्मकृपा (स्वयं पर कृपा) करने लगता है तो उसे क्रमश: गुरुकृपा एवं भगवत्कृपा भी प्राप्त होती है और मोक्षप्राप्ति का मार्ग प्रशस्त होता है |* *संसार में उपलब्ध सभी साधनों के होते हुए भी यदि मनुष्य ने आत्मकृपा न प्राप्त की तो उसे कुछ भी नहीं प्राप्त हो सकता ! अत: आत्मकृपा प्राप्त करने का साधन करना प्रथम एवं महत्वपूर्ण कार्य है |*