*आज तक इस सृष्टि में अनेकानेक ऋषि - महर्षि / विद्वान हुए हैं जिनके मारिगदर्शन में यह सृष्टि गतिमान हुई | आज हमारे पास जो भी संसाधन उपलब्ध हैं इन सबका श्रेय हमारे पूर्व के विद्वानों को ही जाता है | यह उन सभी विद्वानों की विद्वता ही है जो कि हमें जीवन के प्रत्येक विषय का
ज्ञान उपलब्ध कराने वाले ग्रंथ आज हमारा मार्गदर्शन कर रहे हैं | इतना ज्ञान वितरित करने के बाद भी इन विद्वानों ने कभी नहीं कहा कि :- "मैं विद्वान हूँ" | इन विद्वानों की योग्यता के अनुसार इनको देवर्षि , ब्रह्मर्षि एवं राजर्षि आदि की उपाधि मिलती रही है | इन्हीं सब के मध्य में कुछ विद्वान ऐसे भी होते रहे हैं जिन्होंने अपने विद्वान होने की घोषणा स्वयं की | ऐसे विद्वानों की श्रृंखला में राक्षसराज रावण को नहीं भुलाया जा सकता जो कि स्वयं को बार बार त्रैलोक्यविजयी एवं प्रकाण्ड विद्वान बताता रहा है | वह अद्वितीय विद्वान था परंतु यह विद्वानों की शोभा कदापि नहीं होती कि " अपने मुंह तुम्ह आपन करनी" वाली कहावत को चरितार्थ करें | इतिहास गवाह है कि ऐसे स्वघोषित विद्वान कभी भी पूज्यनीय नहीं हो पाये हैं | क्योंकि ऐसे विद्वानों में अहं भाव की प्रधानता होती है और यही अहंभाव उनके ज्ञान एवं अस्तित्व के विनाश का कारण बन जाता है |* *आज
समाज में "स्वघोषित विद्वानों" की बाढ सी आ गयी जो कि स्वयं को "मानस मर्मज्ञ" राजर्षि , ब्रह्मर्षि , आचार्य आदि कहलवाने में आनंद की अनुभूति करते हैं | अपने नाम के आगे बड़ी बड़ी उपाधियाँ लगाने वाले ये विद्वानों के विषय में समय समय पर कटाक्ष होते रहे हैं | कलियुग के इस समय ऐसे ही विद्वानों के लिए पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास की ये उक्ति :-"पँडित सोइ जो गाल बजावा” उन लोगों पर गहरा कटाक्ष करती है जो व्यर्थ भाषण करते हैं और केवल अपने वचनों को ही ज्ञान और पाँडित्य का स्रोत मानते हैं | वर्तमान में यही उक्ति उन विधर्मियों पर भी लागू होती है जो अपने वचनों के आगे सभी मान्यताओं को मिथ्या मानने का हठ करने लगने हैं | कुछ इसी प्रकार के विद्वतजन बिना प्रमाण के आधारहीन व्यर्थ वितंड मचाते हैं और विधवा प्रलाप करते रहते हैं | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" ऐसे विद्वानों को उसी प्रकार मानता हूँ जिसका वर्णन कुछ इस प्रकार किया गया है | ऐसे विद्वान ठीक उसी प्रकार हैं कि :;- 'घटं भिन्द्यात् पटं छिनद्यात् कुर्याद्रासभरोहण ! येन केन प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषो भवेत् !!" अर्थात :- बाजार में कुम्हार की दुकान के घड़े तोड़कर, ख़ुद के कपड़े फाड़कर या गधे पर सवार होकर, चाहे जो भी करना पड़े, येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धि प्राप्त करना चाहिए | जिस प्रकार आजकल कई मक्कार - बेईमान धूर्त लोग -
राजनीति में प्रसिद्धि प्राप्त कर अपना धंधा चमकाने के लिये संस्कृत की उपरोक्त सूक्ति के और आगे जा कर - अप्रामाणिक वक्तव्य दे कर - निरर्थक विवाद उत्पन्न कर - धरना दे कर - लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं | उसी प्रकार कुछ विद्वान भी स्वयं को विद्वान घोषित करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं | ऐसे लोगों की विद्वता अपने स्वभाव के कारण मंद सी पड़ जाती है एवं ये सदैव विवाद का कारण बनते रहते हैं | क्योंकि इन्हें यह आभास होता है कि जो मैं कह रहा हूँ वही सत्य है |* *ऐसे विद्वान समाज का मार्गदर्शन तो करते ही रहते हैं परंतु स्वपोषित अहंभाव के कारण अपना प्रभाव डालने में निष्प्रभावी हो जाते हैं |*