इस संसार में जब मनुष्य का जन्म होता है तो उसका मन बहुत ही निर्मल होता है | वह दुनिया के प्रपंचों से दूर एक नया जीवन प्रारंभ करने का प्रयास करता है |अपने विकास क्रम में जैसे जैसे मनुष्य बड़ा होता जाता है इस संसार में उसके अनेकों मित्र बनते हैं और अनेकों शत्रु भी बन जाते हैं | सांसारिक मित्रों और शत्रुओं की तो गिनती होती है , परंतु मनुष्य के कुछ ऐसे शत्रु हो जाते हैं जिनको कि वह पहचान भी नहीं पाता है | मनुष्य के सांसारिक शत्रुओं के अतिरिक्त जो भी शत्रु हैं उनके विषय में हमारे पुराणों में बारंबार दिशानिर्देश किया है ! और उनसे बचने का उपाय भी बताया है मनुष्य के आंतरिक शत्रुओं में उसका मन , मानसिक तनाव , क्रोध , अहंकार , और अ
ज्ञान प्रमुख रूप से हैं | हमारे पुराणों में मनुष्य के मन को ही मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र और सबसे बड़ा शत्रु बताया गया है | कोई भी बात जब अपने अनुकूल नहीं होती है तो हमको मानसिक तनाव हो जाता है और मन यह मानने लगता है कि सामने वाला जिसने ऐसी बात कह दी है वह मेरा मित्र नहीं हो सकता है | और उसके प्रति जो प्रेम है मेरे मन में वह दूर होने लगता है और हम को मानसिक तनाव हो जाता है | यह मानसिक तनाव हमको इस स्थिति में पहुंचा देता है कि हम पूर्व के सारे मित्रों को भूल कर के अज्ञानता के अंधकार में खोते चले जाते हैं और सामने वाले को अपना शत्रु मानने लगते हैं | जबकि अगर विचार किया जाए तो शत्रु सामने वाला नहीं शत्रु हमारा मन है जिसने की उसके द्वारा कही गई बातों का गलत अर्थ निकाला | मनुष्य को सदैव अपने मन को अपने वश में रखना चाहिए ! जिससे कि इस प्रकार की भ्रांतियां ना फैलने पायें | किसी भी बात को सुनने के बाद कोई निर्णय लेने के पहले मनुष्य को विधिवत मनन - चिंतन कर लेना चाहिए | लिखा गया है कि------- "साधु ऐसा चाहिए , जैसा सूप सुभाय ! सार सार को करि गहै , थोथा देई उड़ाय !! इस संसार में अनेकों प्रकार की वस्तुएं तो यह आवश्यक नहीं कि सब हमारे ही काम की हों | मनुष्य को वही ग्रहण करना चाहिए जो उसके काम की हो बाकी के चक्कर में ना पड़कर उसके बगल से निकल जाना चाहिए | जैसे कि हम बाजार जाते हैं ! अनेक प्रकार के विक्रेता वहां बैठे रहते हैं लेकिन हम वही चीज खरीदते हैं जिसकी हमें आवश्यकता होती है | बाकी दुकानों की ओर हम देखते तो हैं परंतु उसको लेते नहीं क्योंकि हमें उसकी आवश्यकता नहीं है | ठीक उसी प्रकार किसी भी सत्संग में , किसी भी समाज में , हमको वही बात ग्रहण करनी चाहिए जो हमारी काम की हो और जो हमारे काम की ना हो उसको वहीं झटककर चल देना चाहिए | यदि हम अज्ञानतावश बाजार की सारी वस्तुएं खरीद लेते हैं तो पहली बात तो हमको अहंकार हो जाता है कि हमने कुछ भी नहीं छोड़ा , उसके बाद जब घर पहुंचते हैं तो हम को मानसिक तनाव हो जाता है कि हम इन वस्तुओं का क्या करें /??? और उस मानसिक तनाव में कभी-कभी हमारे द्वारा हमारे मतलब की वस्तुएं भी हमको फेंकनी पड़ जाती हैं | हमारे इस कार्य में हमारा समय , हमारा धन , सब कुछ ही व्यर्थ हुआ | और साथ में व्यर्थ हुई वह वस्तु जिनको हम बिना मतलब में खरीद कर लाए थे | अत: मनुष्य को सदैव वही सीख लेनी चाहिए जो उसके योग्य हो | जैसे हंस पानी मिले दूध से दूध को तो ग्रहण कर लेता और पानी को त्याग देता है , उसी प्रकार जब हम भी अपने मतलब की वस्तु , ज्ञान आदि ग्रहण करके शेष को विस्मृत कर दें तो कभी मानसिक तनाव या व्यथा नहीं होगी |