‼ भगवत्कृपा हि केवलम् ‼ सनातन धर्म एक वै
ज्ञान िक धर्म है ! प्राय: लोग कथाओं में जब "दिव्यदृष्टि" का वर्णन पढते हैं तो उन्हें यह बकवास व कोरी कल्पना से अधिक कुछ भी नहीं प्रतीत होता | जबकि मैं दावा करता हूँ कि आज भी यदि मनुष्य चाहे तो दिव्यदृष्टि प्राप्त कर सकता है | यह दिव्यदृष्टि प्राप्त करने के लिए मानव को साधक बनना पड़ेगा | मानवी विद्युत का अत्यधिक प्रवाह नेत्रों द्वारा ही होता है, अस्तु जिस प्रकार कल्पनात्मक विचार शक्ति को सीमाबद्ध करने के लिए ध्यान योग की साधना की जाती है, उसी प्रकार मानवी विद्युत प्रवाह को दिशा विशेष में प्रयुक्त करने के लिए नेत्रों की ईक्षण शक्ति को सधाया जाता है | इस प्रक्रिया को त्राटक का नाम दिया गया है | सरसरे तौर से और चंचलतापूर्वक उथली दृष्टि से हम प्रति क्षण असंख्यों वस्तुएँ देखते रहते हैं | इतने पर भी उनमें से किन्हीं विशेष आकर्षक वस्तुओं की ही मन पर छाप पड़ती है | अन्यथा सब कुछ यो ही आँख के आगे से गुजर जाता है | यदि गम्भीरता और स्थिरतापूर्वक किसी पदार्थ या घटना का निरीक्षण किया जाय, तो उसी में से बहुत महत्त्वपूर्ण तथ्य, उभरते हुए दिखाई देंगे | त्राटक साधना का उद्देश्य अपनी दृष्टि क्षमता में इतनी तीक्ष्णता उत्पन्न करना है कि वह दृश्य की गहराई में उतर सके और उसके अन्तराल में अति महत्त्वपूर्ण घटित हो रहा है उसे पकड़ने और ग्रहण करने में समर्थ हो सके | मनुष्य का अंतरंग नेत्र गोलकों में होकर बाहर झाँकता है | उन्हें अन्तरात्मा की खिड़की कहा गया है | प्रेम, द्वेष एवं उपेक्षा जैसी अंतःस्थिति को आँख मिलाते ही देखा समझा जाता है | काम-कौतुक का सूत्र संचार नेत्रों द्वारा ही होता है | नेत्रों के सौंदर्य एवं प्रभाव की चर्चा करते-करते कवि कलाकार थकते नहीं, एक से एक बड़े उपमा, अलंकार उनके लिए प्रस्तुत करते रहते हैं | दया, क्षमा, करुणा, ममता, पवित्रता, सज्जनता सहृदयता जैसी आत्मिक सद्भावनाओं को अथवा इनके ठीक विपरीत दुष्ट दुर्भावनाओं को किसी के नेत्रों में नेत्र डालकर जितनी सरलतापूर्वक समझा जा सकता है उतना और किसी प्रकार नहीं | दिव्य चक्षुओं से सम्भव हो सकने वाली सूक्ष्म दृष्टि और चर्म चक्षुओं की एकाग्रता युक्त तीक्ष्णता के समन्वय की साधना को त्राटक कहते हैं। इसका योगाभ्यास में अति महत्त्वपूर्ण स्थान है | त्राटक का वास्तविक उद्देश्य दिव्य दृष्टि को ज्योतिर्मय बनाता है | उसके आधार पर सूक्ष्म जगत की झाँकी की जा सकती है | अन्तः क्षेत्र में दबी हुई रत्न राशि को खोजा और पाया जा सकता है | देश, काल, पात्र की स्थूल सीमाओं को लाँघ कर अविज्ञात और अदृश्य का परिचय प्राप्त किया जा सकता है | आँखों के इशारे तो मोटी जानकारी भर दी जा सकती है, पर दिव्य दृष्टि से तो किसी के अन्तः क्षेत्र को गहराई में प्रवेश करके वहाँ ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है जिससे जीवन का स्तर एवं स्वरूप ही बदल जाय | इस प्रकार त्राटक की साधना यदि सही रीति से सही उद्देश्य के लिए की जा सके तो उससे साधक को अन्त चेतना के विकसित होने का असाधारण लाभ मिलता है साथ ही जिस प्राणी या पदार्थ पर इस दिव्य दृष्टि का प्रभाव डाला जाय उसे भी विकासोन्मुख करके लाभान्वित किया जा सकता है |