*इस सृष्टि के चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानवयोनि प्राप्त करके मनुष्य अपने जीवनकाल में अनेकों प्रकार के अनुभव प्राप्त करता है ! इसी क्रम में मनुष्य को मोह , क्रोध , प्रेम , मिलन , वियोग आदि के भी खट्टे - मीठे अनुभव होते रहते हैं | जहाँ संयोग है वहीं वियोग भी है क्योंकि वियोग का प्रादुर्भाव संयोग से ही होता है | यह पूरी सृष्टि संयोग और वियोग की धुरी पर चल रही है | आवश्यकता के अनुरूप संयोग होता है और यही संयोग एक समय बाद बिखरकर वियोग मेंं बदल जाता है | कभी-कभार दैवीय और जगत के कार्यों के लिए संयोग होता है, कभी वैयक्तिक लेन-देन और हिसाब चुकाने अथवा पुरातन चक्र का पुनरावर्तन करने के लिए संयोग की भावभूमि बनती है | संयोग में कभी भी यह शर्त नहीं होती कि कोई एक समान है, समानधर्मा या समानकर्मा है अथवा स्वभाव, गुणावगुणों और चरित्र में कोई समानता है | यह कहीं भी, किसी से भी होना संभव है जिसमेें सम-सामयिक परिस्थितियां और मिलन का अवसर उत्प्रेरक की ही तरह होते हैं | यहाँ उत्प्रेरक संबंधों का स्रष्टा न होकर अनासक्त द्रष्टा होता है जो स्वयं अपरिवर्तित रहता है | बात किसी पदार्थ, धातु या तत्वों की हो अथवा किन्हीं दो आत्माओं की, व्यक्तियों की अथवा किसी भी प्रकार के जड़-चेतन की | हर मामले में समय सापेक्ष संयोग होता है | संयोग निर्मित मिश्रण का अपना प्रभाव असरकारी रहता है, नवीन सृजन की भावभूमि रचता है और फिर एक न एक दिन वियोग का वह समय आ ही जाता है जब विखण्डन हो जाता है और तत्व, धातु या विचार अपने मौलिक स्वभाव में आ जाते हैं जहाँ मिश्रित स्वभाव का असर पूर्णरूपेण समाप्त होकर सभी स्वतंत्र हो जाते हैं |* *आज मनुष्य किसी से प्रेम (संयोग) होने पर हर्षातिरेक में डूब जाता है तो वियोग उसके लिए असहनीय हो जाता है | कभी - कभी तो किसी प्रिय का वियोग जीवन में इतना अधिक प्रभावी हो जाता है कि मनुष्य विक्षिप्त सा हो जाता है | परंतु मेरा "आचार्य अर्जुन तिवारी" का मानना है कि हर तत्व और पदार्थ का संयोग-वियोग स्वाभाविक क्रम है जो प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुरूप चलता रहता है और इस पर किसी का कोई नियंत्रण न रहा है, न रहेगा | काल सापेक्ष हर गतिविधि अपने हिसाब से चलती और नियंत्रित रहती है और इसे अपने हिसाब से ढालने का काम थोड़ी सूझ-बूझ से कर लिया जाए तो इसके असर को निश्चित समय में अधिक से अधिक अनुभव किया जा सकता है | संसार में संबंध दो प्रकार के होते है | पहला सायस और दूसरा अनायस | संबंध चाहे सायास हों अथवा अनायास, इन सभी में शाश्वत मौलिकता देखी जाती है | कुछेक दैवीय कृपा से भरे रिश्तों को छोड़ दिया जाए तो सारे संबंधों में जहाँ-जहाँ संयोग देखा जाता है वहाँ कालान्तर में वियोग आता ही आता है | जिस अनुपात में हम संयोग का आनंद पाते हैं उसी के अनुपात में वियोग का दुःख प्रदान करने वाला समय आता ही है | बात पति-पत्नी, पिता-पुत्र या पुत्री, भाई-बहन के रिश्तों की हो या कोई सा कौटुम्बिक रिश्ता हो अथवा अभिन्न मित्रता का , एक समय तक ही स्थिर रह पाता है | इसके बाद इसमें बिखराव आने लगता है | चाहे वे खून के रिश्ते ही क्यों न हों | पारिवारिक संस्कारों की मजबूत जड़ों से जो लोग बंधे होते हैं वहाँ संबंधों में चाहे कितना वियोग हो, कभी अनुभव नहीं होता |* *संयोग और वियोग का यह सनातन चक्र युगों-युगों से यों ही चला आ रहा है, चलता रहेगा, समझना हमें ही है। जो समझ जाते हैं वे निहाल हो जाते हैं और नासमझ अपनी पूरी जिन्दगी को शोक-संताप तथा रुदन में व्यतीत करते हुए यह जन्म भी खराब करते हैं और आने वाले जन्मों को भी |*