
सनातन साहित्य में मनुष्य के छ: शत्रुओं का वर्णन मिलता है | यह षडरिपु हैं --- काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार और मात्सर्य | इन छ: शत्रुओं में सबसे प्रबल मोह को कहा गया है | मोह के कई रूप होते हैं , यह मानव जीवन में जगह-जगह पर मनुष्य के कार्य को अवरोधित करता रहता है | संसार की व्याधियों की जड़ मोह को ही बताते हुए पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी लिखा है ----- "मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला !" संसार में कुछ लोग प्रेम को भी मोह का ही स्वरूप मानते हैं , जबकि ऐसा नहीं है | अक्सर लोग कहते हैं कि "अमुक वस्तु से हमको बहुत प्रेम हो गया है , हम इसे नहीं छोड़ना चाहते" तो यह प्रेम नहीं वरन् उस वस्तु के प्रति मनुष्य का मोह है | क्योंकि प्रेम की पराकाष्ठा त्याग होती है तो मोह का परिणाम सर्वविदित है | मोह और प्रेम में जमीन - आसमान का अंतर है | किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए अधिक आसक्ति का होना या उसे प्राप्त कर लेने के लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाना ही मोह है | यह मानव स्वभाव होता है कि वह जिसके प्रति आसक्त हो जाता है उसके विछोह की बात सोंचने मात्र से ही उसे आत्मिक कष्ट होने लगता है ! लोग इसे प्रेम कहते हैं जबकि यही मोह है | *एक ओर जहाँ प्रेम में उच्च आदर्शवाद होता है वह सदैव देना ही जानता है वहीं मोह में आदान प्रदान करने की शर्त जुड़ी रहती है | हमने उसके लिए यह किया इसलिए उसने हमारे लिए यह करना चाहा-ऐसा
लेख ा जोखा जहाँ भी लिया जा रहा होगा, वहाँ लाभ-हानि के आधार पर संतोष अथवा आक्रोश भी व्यक्त किया जा रहा होगा | अपेक्षा पूरी होने पर वह आतुर प्रेम भयंकर प्रतिशोध भी बन जाता है और आज दाँत काटी रोटी वाले मित्र कल जान के ग्राहक बने दिखाई पड़ते हैं | प्रेमोन्माद में यह ज्वार भाटे जैसी उठक पटक स्वाभाविक भी है | सच्चे प्रेम में आँधी तूफान नहीं आते | उसमें एक रस शीतल और सुगंध पवन बहता रहता है | प्रेम देने के लिए किया जाता है लेने के लिए नहीं | झंझट तो तब खड़ा होगा जब लेने की अपेक्षा की जायेगी और वह जो चाहा था सो मिल सकेगा | प्रेम इसी चट्टान से टकराकर नष्ट- भ्रष्ट होता है | अनुदान अपने हाथ की बात है, प्रतिदान दूसरे के हाथ की | प्रतिदान का अभिलाषी मोह है और अनुदान के लिए समुन्नत प्रेम | मोहग्रस्त का पग-पग पर खोज का जलन का, उलाहने का, पश्चाताप का, अनुभव होता है किन्तु जहाँ प्रेम है वहाँ शान्ति स्थिरता और प्रसन्नता की स्थिति कभी परिवर्तन दृष्टिगोचर ही न होगा | ऐसा परिष्कृत प्रेम ही आत्मा की उच्चस्तरीय आवश्यकता है | उसे पाकर मनुष्य इतना आनन्द पाता है, जितना ईश्वर का अपनी गोदी में बिठाकर अथवा स्वयं उनकी गोदी में बैठकर पाया जा सकता है | प्रेम सबसे करो परंतु इतना ध्यान अवश्य रखा जाय कि यह मोह में न परिवर्तित होने पाये | जहाँ प्रेम मोह में परिवर्तित होता है वहीं व्याधियां घेरने लगती हैं |