मानव जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्व होता है और यह संस्कार मानव में गर्भकाल से ही आने प्रारम्भ हो जाते हैं| गर्भावस्था में माँ का जैसा आचरण होता है नवजात शिशु वही आचरण लेकर संसार में पदार्पण करता है | इसका उदाहरण है भक्त प्रहलाद , इन्द्र द्वारा गर्भवती महारानी कयाधू का अपहरण हत्या के उद्देश्य से किया गया, परंतु नारद द्वारा कयाधू को बचाकर संतों के आश्रम में रखना जहाँ का वातावरण भक्तिमय होता है कयाधू को प्रहलाद जैसा पुत्ररत्न प्रदान करती है|सनातन काल से अभी कुछ दिन पहले तक यह परिवार की परम्परा रही है कि जब मातायें गर्भ धारण करतीथीं तो उनके आस पास का वातावरण चित्रों या पौराणिक ब्याख्यों से भक्तिमय बनाया जाता था तो प्रहलाद, ध्रुव, विवेकानंद जैसी संतानें प्राप्त होती थीं|परंतु बदलते युग के साथ आधुनिकता के रंग में रंगे भारत में अब वह बातें लुप्तप्राय सी प्रतीत हो रही हैं|अब गर्भवती माताओं के आस पास का भक्तिमय वातावरण का स्थान "टेलीविजन" ने ले लिया है , और गर्भवती मातायें दिन भर मारधाड़ वाली फिल्में देखकर अपना समय व्यकीत करती हैं जिसके परिणामस्वरूप संतानें भी अक्षय कुमार और गुलशन ग्रोवर जैसी हो रही हैं | नवजात के जीवन पर उसके नाम का प्रभाव होता है|लिखा भी गया है------- यथा नामो तथा गुणो" नामकरण संस्कार में जब पुरोहित बुलाये जाते थे तो वे नामकरण करते समय देवी-देवताओं के नाम पर ही नवजात का नामकरण करते थे , इसका लाभ यह होता था कि मनुष्य अपने बच्चों को पुकारने के बहाने भगवान का नामोच्चारण भी कर लेता था|परंतु अब तो पुरोहित बुलाने की परम्परा ही समाप्त होती दिख रही है|लोग अपने मन से ही बच्चों का नाम टिंकू,पिंकू लल्लू डॉली आदि रख लेती हैं तो आज की अधितकर संतानें लल्लू बनी ही घूम रही हैं | फिर इसी क्रम में सबसे नहत्वपूर्ण होता है परिवार का संस्कार|क्योंकि बाल सुलभ मन पर परिवार के क्रिया-कलापों का अमिट प्रभाव पड़ता है|जहाँ देवतुल्य संस्कार होते हैं वहाँ नवजात मर्यादा का पालन करने वाला श्री राम बनकर समाज को आलोकित करता है| परिवार के संस्कार को परिभाषित करते हुए कविकुलशिरोमणि प्रात:स्मरणीय परमपूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी मानस में लिखते हैं-;----- प्रातकाल उठिकै रघुनाथा | मातु पिता गुरु नावहिं माथा|| आयसु मांगि करहिं पुर काजा|देखि चरित हरषहिं मन राजा|| जहाँ माता पिता और गुरुओं का सम्मान होता है वहाँ वहाँ देवत्व प्रकट होता है|ओर इसके ठीक विपरीत राक्षसी प्रवृत्ति से संस्कारित परिवारित के बालक कैसे होते हैं------- मानहिं मातु पिता नहिं देवा|साधुन्ब सन करवाववहिं सेवा|| जिन्ह के यह आचरन भवानी | ते जानहुँ निशिचर सब प्रानी|| अर्थात जिस परिवार के संस्कार में माता पिता गुरु एवं देवों का मान नहीं होता है वहाँ रावण जैसा दुर्दांत निसाचर निकलता है| अत: हमें अपने बालक को यदि महाराणा शिवाजी और विवेकानंद बनाना है तो उसके लिए सरवप्रथम हमें अपने आचरण एवं परिवार के वातावरण को संजोना पड़ेगा , संना संवारना पड़ेगा | !!जय श्री हरि!! आचार्य अर्जुन तिवारी प्रवक्ता श्रीमद्भागवक/श्रीरामकथा 9935328830