*पारब्रह्म परमेश्वर ने जब सृष्टि का विस्तार किया तो मनुष्य सहित चौरासी लाख योनियों का सृजन किया और उनमें जीवन का संचार किया | प्रत्येक जीवों के जीवन का लक्ष्य भी निर्धारित किया | कभी - कभी अन्तर्मन में एक प्रश्न अकस्मात् उठने लगता है कि --- आखिर मानव जीवन का लक्ष्य क्या है ????? वैसे तो आज के मनुष्य का लक्ष्य ही बदल गया है | आज का मनुष्य स्वयं अपना लक्ष्य निर्धारित करके उसी मार्ग पर अग्रसर होता रहा है | साधारणतया मनुष्य का लक्ष्य रोटी , कपड़ा , मकान , शिक्षा एवं व्यवसाय तक ही सीमित होकर रह गया है | जहाँ तक इस जीवन के लक्ष्य का प्रश्न है तो -- यह जीवन स्वयं एक लक्ष्य है | जीवन से बढकर और कोई बात नहीं है जिसके लिए जीवन साधन हो सकें और जो साध्य हो सकें | और सारी चीजों के तो साध्य और साधन के संबंध हो सकते हैं , परंतु जीवन का नहीं, जीवन से बड़ा और कुछ भी नहीं है | जीवन ही अपनी पूर्णता में परमात्मा है | जीवन ही, वह जो जीवंत ऊर्जा है हमारे भीतर | वह जो जीवन है पौधों में, पक्षियों में, आकाश में, तारों में, वह जो हम सबका जीवन है वह सबका समग्रीभूत जीवन ही तो परमात्मा है | यह पूछना कि जीवन का क्या लक्ष्य है, यही पूछना है कि परमात्मा का क्या लक्ष्य है | यह बात वैसी ही है जैसे कोई पूछे प्रेम का क्या लक्ष्य है। जैसे कोई पूछे आनंद का क्या लक्ष्य है ??? आनंद का क्या लक्ष्य होगा ?? प्रेम का क्या लक्ष्य होगा ?? जीवन का क्या लक्ष्य होगा ?? संसार में दो तरह की चीजें हैं , एक जो अपने आपमें व्यर्थ होती है उनकी सार्थकता इसमें होती है कि वह किसी सार्थक चीज तक पहुंचा दें | उन चीजों को साधन कहा जाता है | जैसे एक मोटरकार है उसका अपने में क्या लक्ष्य है ?? कुछ भी नहीं लेकिन उसमें बैठकर कहीं पहुंच सकते हैं | अगर पहुंचना लक्ष्य में हो तो मोटरकार साधन बन सकती है | जीवन में एक तो वे चीजें हैं जो साधन है और कुछ करना हो तो उनके द्वारा किया जा सकता है और अगर न करना हो तो बिल्कुल बेकार हो जाते हैं | जीवन में ऐसी चीजें भी हैं जो साधन नहीं है , वे स्वयं ही साध्य है उनका मूल्य इसमें नहीं है कि वह कहीं आपको पहुंचा दे ! उनका मूल्य खुद उनके भीतर है, खुद उनमें ही छिपा है | वह है प्रेम , अर्थात परमात्मा | मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, उस प्रेममूर्ति भगवान की अनन्य-भक्ति प्राप्त करना है | अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है | यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं | हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है | हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं | इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है | सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। जीवात्मा रूपी हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है | हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं | इसलिये हमें संसार से किसी भी वस्तु को पाने की इच्छा का त्याग कर देना चाहिये और शरीर सहित जो कुछ भी सांसारिक वस्तु हमारे पास है उसे सहज मन-भाव से संसार को ही सोंपना देनी चाहिये |* *हम स्वयं आत्मा स्वरूप परमात्मा के अंश हैं इसलिये स्वयं को सहज मन-भाव से परमात्मा को सोंप चाहिये यानि भगवान के प्रति मन से, वाणी से और कर्म से पूर्ण समर्पण कर देना चाहिये | यही मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है | यही मनुष्य जीवन का एक मात्र लक्ष्य है | यही मानव जीवन की परमसिद्धि है |*