!! भगवत्कृपा हि केवलम् !! *सकल सृष्टि में चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मनुष्य को माना गया है | कालांतर में चार वर्ण बन गये | इन चारों वर्णों में हमारे पुराणों ने ब्राम्हण को सर्वश्रेष्ठ कहा है | ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ अपने त्याग एवं तपस्या से हुआ है | त्यागमय जीवन एवं तपस्या के बल पर ब्रह्माण ने स्वयं में ब्राह्मणत्व उत्पन्न किया है | ब्रह्माणत्व अर्थ है एक शक्ति संचय , जो कि त्याग एवं तपस्या से ही संभव है | ब्राह्मणत्व की विशेषताओं का वर्णन "बज्रसूचिकोपनिषद" में लिखा हुआ है :- कामरागादिदोषरहितः शमदमादिसम्पन्नो भाव मात्सर्य तृष्णा शामोहादि रहितो दंभ अहंकारादिभिरसंस्पृष्टचेता वर्तत एव मुक्तलक्षणो यः स एव ब्राह्मण इति ! श्रुति स्मृति पुराणेतिहासानामभिप्रायः ! अन्यथा हि ब्राह्मणत्व सिद्धिर्नासत्येव" अर्थात :- काम-रागद्वेष आदि दोषों से रहित होकर कृतार्थ हो जाने वाला ; शम-दम आदि से संपन्न ; मात्सर्य , तृष्णा , आशा,मोह आदि भावों से रहित; दंभ, अहंकार आदि दोषों से चित्त को सर्वथा अलग रखने वाला हो, वही ब्राह्मण है; ऐसा श्रुति, स्मृति-पूरण और इतिहास का अभिप्राय है ! इस (अभिप्राय) के अतिरिक्त एनी किसी भी प्रकार से ब्राह्मणत्व सिद्ध नहीं हो सकता | ब्राह्मणत्व के बल पर श्रृंगी ऋषि ने महाराज परीक्षित को श्राप दे दिया था | ब्राम्हणत्व एवं तपस्या का ही फल है कि विश्वामित्र जी ने महाराज सत्यव्रत को सदेह स्वर्ग भेजने का प्रयोजन कर दिया | यही नहीं उन्होंने दूसरी सृष्टि की रचना भी करना प्रारंभ कर दिया था | यह संभव हो पाया उनकी तपस्या एवं संचित ब्राह्मणत्व से | ब्राह्मणत्व ब्राह्मण की पूंजी है इसका संरक्षण भी ब्राह्मणों को करते रहना चाहिए |* *आज के युग में ब्राम्हण अपनी मूलपूंजी ब्राह्मणत्व का न तो संचय कर पा रहा है और न ही संरक्षण | ब्राह्मण त्याग एवं तपस्या की मूर्ति कहा जाता रहा है , परंतु आज के अर्थयुग में यह बाते दिवास्वप्न सी लगती हैं | आज कोई भी काम , क्रोधादि विकारों से स्वयं को बचा नहीं पा रहा है | आज ऊँचे ब्राह्मणकुल में उत्पन्न लोग स्वयं में ब्राह्मणत्व की दुहाई देते हुए देखे जा रहे हैं , जबकि सत्य यह है कि वे ब्राह्मणत्व के मर्म को भी न जानते होंगे | मैं "आचार्य अर्जुन तिवारी" स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी यह कह रहा हूँ कि आज पूजा , पाठ , कथा , प्रवचन करने वाले विद्वान स्वयं में ब्राह्मणत्व का दम तो भरते हैं परंतु उन्हें स्वयं आत्ममंथन करना चाहिए कि क्या उनमें ब्राह्मणत्व नाम की पूंजी है | आज सारे कार्यक्रमों को सम्पादित कराने के लिए पहले से ही दाम तय हो जाते हैं ऐसे में यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हम अपनी तपस्या की पूँजी का
व्यापार कर रहे हैं | त्याग तो आज कोई करना ही नहीं चाहता है | विचार कीजिए कि जब मनुष्य अपने लोभ एवं क्रोध , ईर्ष्या एवं द्वेष का त्याग नहीं कर पा रहा है तो सांसारिक उपभोग के साधनों का त्याग कैसे कर पायेगा | ब्राह्मणत्व की परिभाषा है कि जो स्वयं को जीवित न समझे उसी में ब्राह्मणत्व का प्राकट्य हो सकता है | क्योंकि ब्राह्मणत्व उसी में प्रकट हुआ है जिसने स्वयं को संसार से अलग कर लिया है | संसार में रहकर सांसारिक भावनाओं से बच पाना आज के युग में मुश्किल ही नहीं बल्कि असम्भव है |* *आज यदि हम ब्राह्मणत्व का संचय न कर पायें तो कम से कम स्वयं को किसी के प्रति मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेषादि से बचाकर रखने का प्रयास अवश्य करते रहें |*