शकुन मिलता है।शाम सड़क में खड़ी काम से, हरी थकी औरत। निहारती अपने घर जाने वाली हरी लाल बस को।देख उसे वह भागती कि चढ़ जाऊंगी अपनी बस में।बस भी मजबूर, चढ़ाती वह भी गिनती की सवारी।जहाँ में फैली थी, कोरोना की बीमारी संग महामारी।चढ़ जाती जो वह औरत बस में एक शकुन सा पाती।ले गुलाबी टिकट हो उन्मुक्त सफर में अपनी
चाहतीहूँ ,उकेरना ,औरत के समग्र रूपको, इस असीमित आकाश में !जिसके विशालहृदय में जज़्बातों का अथाह सागर,जैसे संपूर्ण सृष्टि कीभावनाओं का प्रतिबिंब !उसकेव्यक्तित्व कीगहराई में कुछ रंग बिखर गए हैं । कहींव्यथा है ,कहीं मानसिक यंत्रणा तो कहींआत्म हीनता की टीस लिए!सदियोंसे आज
भारत में यदि आप एक लड़की हो और आपको कभी अकेले किसी नए अनजान शहर में जाना पड़े और वहां रहना पड़े तो बेशक बहुत चिंताजनक बात हो सकती है. खासकर जब हम किसी को भी न जानते हों. आपके लिए बहुत ही चिंताजनक बल्कि डरावना साबित हो सकता है यदि आप सिंगल हो औ
किस्सा -1 मैं बाज़ार से कुछ सामान खरीद कर घर की ओर जा रही थी. रस्ते में एक बुजुर्ग आदमी मुझे हल्का सा टकराता हुआ तेजी से निकला, मुझे लगा शायद गलती से हुआ. थोड़ी दूर जाने पर वो आदमी आगे सड़क किनारे खड़ा हुआ था.उस बुजुर्ग आदमी ने मुझे देखकर एक अजीब से हंसी मेरी तरफ फेंकी. उस समय मुझे इतना गुस्सा आया लगा
बातों का खजाना  औरतों की अभिव्यक्ति को बातूनी कहकर दरकिनार कर दिया जाता है। औरत स्वयं में चलती फिरती कहानी है, वह अपनी वास्तविक जिंदगी के बहुत से क़िरदारों को जीती हैं। पिता का साया सिर पर नहीं हो तो पिता बन जाती है। घर की बड़ी स्वयं हों तो बेटा बन जाती है। औरत जिम्मेदारी की पहली जुबान है। जिसे हर
बहुत बोलती थी वो...बोलती भी क्या थीमुट्ठी में सच तौलती थीतसव्वुर में अफसानों पर हकीकत के रंग उडेलती थीअल्हड़ थी वो नामुरादअरमानों से लुकाछिपी खेलती थीछू के मुझको सांसों सेअहसासों के मायने पूछती थीगुम हो कर यूं ही अक्सरअपनी आमद बुलंद करती
जुड़ सकूं, ऐसा कोई गुर तलाशती हूं,सन्नाटों के बिंदास सुर तलाशती हूं...हूं भी या माजी की शादाब मुहर भर हूं,किससे पूछूं, उसको अक्सर पुकारती हूं...रोने के सुकूं से जब घुट जाती हैं सांसें,मुस्कुराहट का अदद दस्तूर तलाशती हूं...फलक-ओ-जमीं से फुर्कत का सबब लेती हूं,लिपट के उससे रोने के बहाने तलाशती हूं...खु
तुम जो भी हो,जैसे हुआ करती हो,जिसकी जिद करती हो,वजूद से जूझती फिरती हो,अपने सही होने से ज्यादाउनके गलत होने की बेवजह,नारेबाजियां बुलंद करती हो,क्या चाहिये से ज्यादा,क्या नहीं होना चाहिए,की वकालत करती फिरती हो,अपनी जमीन बुलंद भी हो मगर,उनके महलों को मिटा देने की,नीम-आरजूएं आबाद रखती हो,मंजिलों की मुर
आधे लोग तो बस इसीलिये बक बकाने लगते हैं कि - लडकी है और इतना बोल गयी... लडकी है और इतना कर गयी... इतने लड़को को सुना दी ! फ़िर कुछ सोचते हैं केसे भी करके इसकी आवाज़ दबा दे ... बस यही वो सबसे बडी भूल कर जाते हैं ! उन्हे लगता है जेसे उनकी घर की औरते हैं विजि ही और है क्युकिं
व्यथित सही ,पीड़ित सही ,पर तुझको लगे ही रहना है , जब तक सांसें ये बची रहें ,हर पल मरते ही रहना है . ............................................................................ पिटना पतिदेव के हाथों से ,तेरी किस्मत का लेखा है , इस दुनिया की ये बातें ,माथे धरकर ही रहना
ये केसा दौर आ गया इंसान खुद ही खुद को मार रहा है ।बेटे की अती चाहत में बेटी को तु क्यों मार रहा है ।।अपने मान समान के कारण ग़लत क़दम तु क्यों उठा रहा है ।बेटे की अती चाहत में बेटी को तु क्यो मार रहा है ।।बेटीयॉं घर की लक्ष्मी है पगले बेटीयॉं घर की शान है ।बेटियों की ही बदौलत से तो यह सारा संसार है ।
ऐसे कलुषित समाज में लेकर जन्मवर्ण कुल सब मेरा श्याम हो गया ।बड़ी दूषित है सोचकर्म भी काले हैंगहन तम मेंअस्तित्व इनका घुल गया ।देखकर यह समाजहोती है घुटन आज ।कैसा है समाज इसे आती नहीं लाज ?नर्क से निकाल करदुनियाँ में जो लायी ।शून्य मन में ज्ञान कीजिसने ज्योति जलायी ।जिसका शोणित पीकरजीवन मिलता है ।जिसक
तैयार की जाती है औरतें इसी तरह रोज छेदी जाती है उनके सब्र की सिल हथौड़ी से चोट होती है उनके विश्वास पर और छैनी करती है तार – तार उनके आत्मसम्मान को कि तब तैयार होती है औरत पूरी तरह से चाहे जैसे रखो रहेगी पहले थोड़ा विरोध थोडा दर्द जरुर निकलेगा आहिस्ते – आहिस्ते सब गायब और पुनश्च दी जाती है धार क्रूर
तपिश ज़ज़्बातोंकी मन में,न जाने क्योंबढ़ी जाती ?मैं औरत हूँ तोऔरत हूँ,मग़र अबला कहीजाती ।उजाला घर मे जोकरती,उजालों से हीडरती है ।वह घर के हीउजालों से,न जाने क्योंडरी जाती ?जो नदिया हैपरम् पावन,बुझाती प्यास तनमन की ।समन्दर में मग़रप्यासी,वही नदिया मरीजाती ।इज़्ज़त है जोघर-घर की,वही बेइज़्ज़तहोती है ।
हर किसी को चाहिये सुसंस्कृत नारी जो बस उसके के ही गीत गायेगी खुद के लक्षण हों चाहे शक्ति कपूर जैसे पर बीबी सपनों में, सीता जैसी आयेगीरूप लावण्य से भरी होनी चाहिये जवानी भी पूरी खरी होनी चाहिए सामने बोलना मंजूर ना होगा हरदम नौकरी भी करती हो तो छा जायेगीघर के काम में दक्षता होना तो लाजिमी है जो उसे दब
सूर्य में कितनी ऊर्जा है ये उसे नहीं पता ,चन्द्रमा में कितनी शीतलता है ये उसे नहीं पता ,फूल अपनी सुगंध से अवगत नहीं है ,हीरा अपने मूल्य से अंजान है
सामान्यतः मनुष्यों को जल, भाफ, अग्नि, विद्युत, वायु, गैस आदि की शक्ति का तो अनुभव हुआ करता है, परन्तु ‘शब्द’ में भी कोई ऐसी शक्ति होती है, जो स्थूल पदार्थों पर प्रत्यक्ष प्रभाव डाल सके, इस पर उनको शीघ्र विश्वास नहीं होता। वे यह तो मान सकते हैं कि मधुर शब्दों से श्रोता का चित्त प्रसन्न होता है कठोर श
@लाज है नारी का गहना,इसका मत व्यापार करो@*******************************************************नारी जिस्म-फ़रोशी का , बन्द यह बाजार करो ।लाज है नारी का गहना,इसका मत व्यापार करो ॥नारी के जिन उरोजों पर,शिशुओं का होता है अधिकार।मिलती है जिनसे उनको , उज्ज्वल पावन जीवन-धार॥सरे आम उघाड़ कर उनको , न उन पे